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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य जम्बू के पूर्वभव किया। वे अपना पूर्व का खन्त मुनि.का वेश बनाकर महिष के सम्मुख उपस्थित हुए और मुनिचर्या से दुखित हो उनके पुत्र ने जो वाक्य कहे थे उन्हीं वाक्यों को महिष के समक्ष बार-बार दोहराने लगे- “खन्त ! मैं यह नहीं कर सकता, वह नहीं कर सकता।"
खन्त के स्वरूप को देखकर महिष ने विचार किया- "मैंने ऐसा स्वरूप कहीं देखा है और ये वाक्य भी परिचित से प्रतीत होते हैं।" इस प्रकार चिन्तन करते हुए महिष को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उस महिष ने उस ही क्षण मन ही मन देशविरति श्रावकधर्म धारण कर जीवन भर के लिए प्रशन-पान का परित्याग कर दिया। कुछ ही समय पश्चात् वह भंसा मरकर अनशन और शुभ अध्यवसायों के फलस्वरूप सौधर्म देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुआ।"
नागिला ने प्रश्न किया- "मुने! इस प्रकार तिर्यंच योनि में पड़े हुए उस ब्राह्मणपुत्र का उसके पिता ने उद्धार किया। आश्चर्य की बात है कि देवरूप से उत्पन्न हुए आपके बड़े भाई भवदत्त ने अभी तक आपको प्रतिबोधित करने का विचार तक क्यों नहीं किया ?"
अन्त में नागिला-श्राविका ने कहा- "महात्मन् ! यह जीवन जलबुद्बुद के समान धरणविध्वंसी है। यदि आप श्रमरणधर्म से विचलित हो गये तो संसार में अनन्तकाल तक परिभ्रमण करते रहेंगे। अतः अब भी सम्हलिए। अपने गुरु के पास लौट जाइए और प्रायश्चित्त लेकर पंच महाव्रतों का पूरी तरह से पालन कीजिए । तप और संयम से आप अन्ततोगत्वा समस्त कर्मों का क्षय कर अवश्य ही अक्षय, अव्याबाध, अनन्त शिवसुख प्राप्त करने में सफल हो सकेंगे।"
ठीक उसी समय नागिला के साथ आई हुई ब्राह्मणी का पुत्र वहां माया और उसे किसी कारण से वमन हो गया। थोड़ी ही देर पहले खाई हुई खीर बालक के मुंह से बाहर आ गिरी। यह देख कर ब्राह्मणी ने अपने पुत्र से कहा"वत्स ! इधर-उधर से चावल मांग कर मैंने तेरे लिए बड़े ही चाव से प्रत्यन्त स्वादु खीर बनाई थी। यह खीर बड़ी ही स्वादिष्ट और मीठी है अतः इस वमन की हुई खीर को तुम पुनः खा लो।""
१ (क) जायं कुप्रो वि कारणो वमणं । भरिणयं बभणीए • जाय ! जाइऊण तंदुलाइणि मए कनो पायसो एसो ता भुज्जो वि मुंजेसु । प्रइ लठं मिट्ठमेयं ति ।
[जम्बूस्वामी चरित (रत्नप्रभसूरिचित)] (ब) वसुदेवहिण्डी में दक्षिणा के लोभ से वमन करने की बात कही गई है।
"एयम्मि देसयाले तीए माहणीए दारगो पायसं मुंजिऊरण प्रागतो भणइ - अम्मो! प्राणेह कोलालं जाव पायसं वमामि, ततो पुणो मुंजीहं प्रईब मिट्ठो, पुणो दक्षिणा हेउं अन्नत्थ भुंजामि । तीए भरिणयं - पुत्त वंतं न भुजेइ पुणो प्रलं ते दक्खिरणाए, • वच्च अच्छसु सुहंति ।
[सम्पादक]
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