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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राय जम्बू के पूर्वभव बाललीलामों से माता-पिता और परिजनों के प्रानन्दोल्लास को बढ़ाते हुए बालक ने शैशवावस्था को पार किया। सुयोग्य कलाचार्यों एवं अध्यापकों से बालक ने समस्त कलाओं और विद्याओं में कुशलता प्राप्त की। युवा होने पर राजकुमार सागरदत्त का अनेक सर्वाङ्गसुन्दरी कुलीन कन्याओं के साथ पाणिग्रहण कराया गया। वह मुररमणियों के समान रूपवती पत्नियों के साथ विविध भोगोपभोगों का उपभोग करता हुआ बड़ा ही सुखमय जीवन बिताने लगा।
एक दिन शरद ऋतु में राजकुमार सागर अपनी पत्नियों के साथ प्रासाद के झरोखे में बैठा हुआ प्राकृतिक छटा का निरीक्षण कर रहा था। उसने देखा कि क्षितिज के एक छोर से बादल उभरा और देखते ही देखते उसने ऐसा विशाल रूप धारण कर लिया कि वह समस्त नभमण्डल पर छा गया। समस्त अम्बर सघन काली घनघटा से गहडम्बर बन गया। सहसा दक्षिण-दिशा से पवन का एक झोंका पाया और कुछ ही क्षरणों में घनघोर मेघघटा छिन्न-भिन्न होकर न मालूम कहां विलीन हो गई।
राजकुमार की विचारधारा ने इससे एक नया मोड़ लिया। वह सोचने लगा - "जिस प्रकार बादलों का वह नयनाभिराम मनोहारी दृश्य क्षण भर में ही जलबुबुदु की तरह शून्य में विलीन हो गया, ठीक उसी प्रकार यह राज्यलक्ष्मी, ऐश्वर्य, भोगोपभोग, सुख के सारे साज और शरीर तक भी एक न एक दिन अचानक ही नष्ट होने वाले हैं। दृश्यमान समस्त सांसारिक वस्तुओं का बादल के समान विनाश सुनिश्चित है-अवश्यंभावी है। विनाशशील वस्तूमों में मोह वस्तुतः महामूर्खता का द्योतक है। भोगी और भोग्य ये दोनों ही क्षणभंगुर हैं। इनमें प्रासक्ति का अर्थ है आत्मनाश-अपना सर्वनाश । भवभ्रमण बढ़ाने वाले इन विषयभोगों में लुब्ध होकर मैंने अपने मानव-जीवन की लाखों अमूल्य घड़ियां व्यर्थ ही बिता दी हैं। अब मुझे सजग होकर प्रात्मोद्धार के लिए अनवरत प्रयास करना चाहिए। वृद्धावस्था इस देह-पंजर को जर्जरित न कर दे, उससे पहले ही मुझे प्रवजित होकर अपनी प्रात्मा के उद्धार-कार्य में जुट जाना चाहिए।" ।
___इस प्रकार चिन्तन करते हुए राजकुमार सागरदत्त को संसार से पूर्ण विरक्ति हो गई और उन्होंने दूसरे ही दिन अपने परिवार के अनेक सदस्यों के साथ अभयसार नामक प्राचार्य के पास भागवती-दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा लेकर उन्होंने परम विनीत भाव से अपने प्राचार्य और ज्येष्ठ श्रमणों की लगन के साथ सेवा की और अध्ययन करते हुए गुरुकृपा से मुनि सागरदत्त स्वल्प समय में ही शास्त्रों के पारगामी बन गये। शास्त्राध्ययन के साथ-साथ उन्होंने घोर सामरस भी किया जिसके परिणामस्वरूप उन्हें प्रवधिज्ञान की उपलब्धि हुई। बेअपने गुरु की सेवा और भव्य प्राणियों का उद्धार करते हुए अनेक क्षेत्रों में विचरण करने लगे।
उधर भवदेव का जीव भी.देवायु पूर्ण होने पर सौधर्म देवलोक से च्यवन कर उसी पुष्कलावती विजयान्तर्गत बीतशोका नगरी के नृपति पमरथ की रानी
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