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मार्य जम्बू के पूर्वभव] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू
१६७ वनमाला की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। माता-पिता द्वारा उसका नाम शिवकुमार रखा गया । युवा होने पर शिवकुमार का अनेक राजकन्याओं के साथ, पाणिग्रहण हुआ और वह देवोपम भोगों का उपभोग करने लगा।
एक समय मुनि सागरदत्त ग्राम-नगरों में विचरते हुए वीतशोका' नगरी पधारे। धर्मोपदेश के पश्चात् उन्होंने मासोपवास का पारणा एक सार्थवाह के यहां किया । दान की महिमा में आकाश से पंच-दिव्यों की वृष्टि हुई। वसुधारा की बात सुनकर राजकुमार शिवकुमार भी दर्शनार्थ मुनि सागरदत्त की सेवा में पहुँचा। उसने बड़ी श्रद्धा से मूनि को वन्दन किया और उपदेश सुन कर प्रसन्न हुआ। उपदेश के पश्चात् शिवकुमार ने मुनि से पूछा - "श्रमणशिरोमणे ! मुझे आपको देखते ही अत्यधिक हर्ष और परम उल्लास का अनुभव क्यों हो रहा है ? क्या मेरा आपके साथ कोई पूर्वभव का सम्बन्ध है ?"
___ मुनि सागरदत्त ने अवधिज्ञान से जान कर कहा - "शिवकुमार ! इससे पहले के तीसरे भव में तुम मेरे भवदेव नामक अनुज थे। तुमने मेरा मन रखने के लिए सद्य:परिणीता नववधु को छोड़कर मेरी इच्छानुसार श्रमणत्व स्वीकार कर लिया। श्रमणाचार का पालन करते हुए आयु पूर्ण कर तुम सौधर्म देवलोक में महान ऋद्धिसम्पन्न देव हुए। वहां भी हम दोनों में परस्पर प्रगाढ़ स्नेह था। उन दो भवों के स्नेहपूर्ण सम्बन्ध के कारण आज भी तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति स्नेहसागर उमड़ रहा है । वीतरागमार्ग का पथिक होने से मेरे मन पर अब राग अथवा द्वेष का कोई प्रभाव नहीं होता। क्योंकि अब मैं संसार के समस्त प्राणियों को प्रात्मवत् समझता हूं।"
राजपुत्र शिवकुमार ने हर्षविभोर हो सांजलि मस्तक झुकाया और मधुर स्वर में कहा-"भगवन् ! अापने जो फरमाया वह तथ्य है। मैं इस भव में भी प्रवजित हो पापकी पर्युपासना एवं प्रात्मकल्याण की साधना करना चाहता हूं। मैं अपने माता-पिता की प्राज्ञा लेकर प्रभी भापकी सेवा में उपस्थित होता. हूं।"
मुनि सागरदत्त ने कहा- "देवप्रिय ! शुभ कार्य में प्रमाद नहीं करना ही श्रेयस्कर है।"
तदनन्तर शिवकुमार ने राजभवन में पहुंच कर माता-पिता के सम्मुख अपनी प्रान्तरिक अभिलाषा प्रकट करते हए कहा- "अम्ब-तात! मैंने माज एक अवधिज्ञानी मुनीश्वर से अपने पूर्वभवों का वृत्तान्त सुना। मुझे संसार से पूर्ण विरक्ति हो गई है। मैं श्रमण बन कर आत्मकल्याण करना चाहता हूं। अतः आप मुझे प्रवृजित होने की आज्ञा प्रदान कर मेरी आध्यात्मिक साधना में सहायक बनिये।"
अपने पुत्र की बात सुन कर महाराज पपरथ और महारानी वनमाला वजप्रहार से प्रताड़ित की तरह अवाक् निषण्ण रह गये ! आंखों से अश्रुधाराएं प्रवाहित करते हुए अत्यन्त करुण और दीन स्वर में वे बोले-"वत्स! तुम
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