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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य जम्मू के पूर्वभव वह अतिशय रूप सम्पन्न प्रमरसुन्दरियों के साथ अनक प्रकार के दिव्य भोगो का उपभुंजन करता हुमा अत्यन्त सुखमय जीवन व्यतीत करने लगा। अपनी देवियों के साथ जिनेन्द्र भगवान् के समवसरण में जाकर वह प्रभु की अमृतोपम अमोघ वाणी के श्रवण का भी आनन्दानुभव करने लगा।"
त्रिकालज्ञ भगवान् महावीर ने मगध सम्राट् श्रेणिक को इस प्रकार आर्य जम्बू के चार पूर्वभवों का वृत्तान्त सुना कर फरमाया- "मगधेश! यह वही भवदेव का जीव विद्युन्माली देव है। आज से सातवें दिन यह देवायु की समाप्ति कर इसी राजगृह नगर के श्रेष्ठिमुख्य ऋषभदत्त की पत्नी धारिणी के गर्भ में अवतरित होगा। गर्भकाल की समाप्ति पर धारिणी इसे पुत्र रूप में जन्म देगी और इसका नाम जम्बूकुमार रखा जायगा । जम्बूकुमार विवाहित होकर भी प्रखण्ड ब्रह्मचारी रहेगा और विवाह के पश्चात् दूसरे ही दिन विपुल धन-सम्पत्ति का परित्याग कर अपनी सद्यःपरिणीता पाठों पत्नियों, अपने और उन पत्नियों के माता-पिता, पल्लीपति प्रभव और प्रभव के ५०० साथियों के साथ प्रवजित होगा।
जम्बूकुमार इस अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र का अन्तिम केवली और चरमशरीरी मुक्तिगामी होगा। उसके मोक्षगमन के पश्चात् भरत क्षेत्र से इस अवसर्पिणीकाल में और कोई मुक्त नहीं होगा।"
इस पर श्रेणिक ने भगवान् से पूछा- "प्रभो! देवायु की समाप्ति का समय सन्निकट आने पर देवों के शरीर की कान्ति अक्सर तेजोविहीन हो जाती है पर इसके विपरीत विद्युन्माली देव का शरीर अत्यन्त तेजस्वितापूर्ण और परम कमनीय प्रतीत हो रहा है । ऐसा क्यों ? इसका क्या कारण है?"
__ प्रभु ने फरमाया - "प्राचाम्ल तप के प्रभाव से विद्युन्माली के शरीर की कान्ति इस समय जैसी तुम देख रहे हो उससे लक्ष-लक्ष गुनी अधिक कमनीय और तेजपूर्ण थी। देवायु पूर्ण होने का समय समीप.मा जाने से वह कान्ति अब बहुत कम हो गई है।"
भगवान् महावीर के मुख से विद्युन्माली देव के भूत और भावी भवों का वृत्तान्त सुनकर राजर्षि प्रसन्नचन्द्र का केवल-ज्ञानोत्सव मनाने के पश्चात् प्रभु दर्शनों के लिए आया हुआ अनाधृत देव हर्षातिरेक से प्रानन्द विभोर हो अपने स्थान से उठा। उसने तीन बार प्रदक्षिणा कर भगवान् महावीर को बड़ी ही श्रद्धा-भक्तिपूर्वक वन्दन किया और मधुर स्वर में कहने लगा- "अहो! धन्य है मेरा उत्तम कुल ।"
' एवं च भयवनो सोजण बयणं -प्रणाडियो जंबूदीवाहिवई ...........तिविहं वंदिऊरण, माफोडेऊण, महुरेण सद्देण - "अहो मम कुलं उत्तमं ति ।
[वसुदेव हिंडी, प्रश्रम ग्रंश, पृष्ठ २५]
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