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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रायं जम्बू के पूर्वभव हमारे इकलौते पुत्र हो। हमारे लिये एक मात्र तुम ही स्वर्ग, अपवर्ग, त्राण, शरण और प्रकाशपूर्ण कुलप्रदीप हो। हमारे प्राण तुम्हारे सहारे से ही देहपंजर में रुके हुए हैं। तुम यह निश्चित समझो कि तुम्हारे प्रवजित होते ही हमारे प्राण बिना नीड़ के पक्षी की तरह उड़ कर अनन्त शून्य में विलीन हो जायेंगे।"
बहुत कुछ समझाने-बुझाने और अनुनय-विनय के पश्चात् भी जब शिवकुमार को अपने माता-पिता से प्रवजित होने की अनुज्ञा प्राप्त नहीं हुई तो वह समस्त सावद्य योगों का पारित्याग कर विरक्त भाव से धीर-गम्भीर मुद्रा धारण किये राजप्रासाद में ही श्रमण की तरह स्थिर आसन जमा कर बैठ गया। उसने हास-परिहास, आमोद-प्रमोद, खेल-कूद, बोल-चाल, और खान-पान तक का परित्याग कर दिया। वह एकाग्रचित्त हो अंन्तःपुर के एक कोने में इस प्रकार निलिप्तभाव से रहने लगा मानो किसी सुनसान बियावान निर्जन वन में निवास कर रहा हो। माता-पिता, परिजन, एवं प्रतिष्ठित पौरजनों ने शिवकुमार को समझाने में किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखी पर सब व्यर्थ । विरक्ति-मार्ग से कुमार को कोई किंचित्मात्र भी विचलित नहीं कर सका। सभी प्रकार के उपायों के निष्फल हो जाने पर राजा पद्मरथ बड़ा चिंतित हुआ। उसने अन्त में दृढ़धर्म नामक एक अत्यन्त विवेकशील श्रावक को बुलाया और उसे सारा वृत्तान्त सुना कर कहा-"श्रेष्ठिपुत्र! तुम अपने बुद्धिबल से येन-केन-प्रकारेण राजकुमार को अन्न-जल ग्रहण करने के लिये सहमत कर हमें नवजीवन प्रदान करो।"
___ "राजन् ! मैं यथाशक्ति पूरा प्रयास करूंगा।" यह कह कर श्रेष्ठिपुत्र दृढ़धर्मा राजकुमार शिवकुमार के पास पहुंचा। "निसीहि" "निसीहि" के उच्चारण के साथ दृढ़धर्मा ने राजकुमार के पास पहुंच कर प्रादक्षिणा-प्रदक्षिणापूर्वक साधुनों के समान सविधि वन्दन किया। तत्पश्चात् राजकुमार की अनुज्ञा प्राप्त कर स्थान को सावधानी से देख कर दृढ़धर्मा शिवकुमार के पास बैठ गया।
राजकुमार ने यह सब देख कर मन ही मन विचार किया कि इस श्रावक ने मुझे ठीक साधु की तरह नमस्कार क्यों किया है ? अपनी शंका के निवारण हेतु उसने दृढ़धर्मा से पूछा-"श्रेष्ठिपुत्र! मैं साधु नहीं हूं। फिर भी तुमने मुझे साधु की तरह नमस्कार किया, इसका क्या कारण है ?"
श्रेष्ठिपूत्र दृढधर्मा ने उत्तर में कहा- भाग्यवान ! श्रमणों के समान प्रापके माचरण को देख कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। यद्यपि इस प्रकार वन्दन-नमन मुनियों को ही किया जाना उचित है तथापि..समस्त सदोष कार्यों का परित्याग करने के कारण प्राप भाव-यति बन गये हैं प्रतः भापके समान त्यागियों को भी उस प्रकार नमन करना विनयमूलक जैनधर्म के अनुसार अनुचित नहीं है।"
__ इतना कहने के पश्चात् श्रावक दृढ़धर्मा ने शिवकुमार से प्रश्न किया"साधकश्रेष्ठ ! मुमुक्षु राजकुमार ! प्रापने प्रशन-पान, संभाषणादि का परित्याग क्यों कर दिया है ?"
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