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प्रार्य जम्बू के पूर्वभव] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू
१६६ ___ शिवकुमार ने उत्तर दिया- "इभ्यकुमार ! मैने पंच महाव्रतों के पालन का दृढ़ संकल्प कर लिया है किन्तु मेरे माता-पिता मुझे प्रवजित होने की आज्ञा प्रदान नहीं करते अतः जब तक कि वे मुझे अनुज्ञा नहीं देते तब तक के लिये भावश्रमणत्व को धारण किये मैं घर में ही रह रहा हूं। मैं सभी प्रकार के सावद्य-कर्म के परित्याग की प्रतिज्ञा कर चुका हूं। ऐसी दशा में मैं सदोष अशन, वसन, पानादि ग्रहण नहीं कर सकता और न इन स्वजन-परिजनों के साथ संभाषण ही कर सकता हूं।
श्रेष्ठिपूत्र दृढ़धर्मा ने शिवकुमार के वैराग्य की प्रशंसा करते हुए कहा"कुमार ! साधनामार्ग में प्रापका दृढ़ निश्चय वस्तुतः स्तुत्य है पर इस प्रकार अनशन करना तो उन्हीं महापुरुषों के लिये लाभप्रद हो सकता है जो कि कृतकृत्य हो चुके हैं। आप तो साधक हैं। कर्मनिर्जरा हेतु आप अपने भावचारित्र का . निर्वहन प्रशन-पानादि के परिहार से तो अधिक समय तक नहीं कर सकेंगे। अन्न-जल के बिना तो शरीर कुछ ही समय में विनष्ट हो जायगा। यदि आप आवश्यक मात्रा में प्रशन-पानादि ग्रहण करते रहेंगे तो चिरकाल तक संयम का परिपालन कर कर्मसमूह को विनष्ट करने में अधिकाधिक सफल हो सकेंगे। प्रतः आपके लिये यही श्रेयस्कर है कि जब तक माता-पिता प्रापको प्रवजित होने की अनुज्ञा प्रदान न करें तब तक निरवद्य अशन-पानादि आवश्यकतानुसार ग्रहण करते हुए अपने घर में ही रह कर साधु तुल्य जीवन व्यतीत करें।"
शिवकुमार ने कहा-"सुश्रावकः ! आप जो कह रहे हैं, वह ठीक है किन्तु यहां राजप्रासाद में रहते हुए प्राशुक अशन-पान-वसनादि का मिलना असंभव समझ कर ही मैंने इन सब का परित्याग किया है।"
दृढ़धर्मा ने कहा-"आप इसके लिये निश्चिन्त रहें । मैं यथासमय पूर्णरूपेण प्राशुक आहार-पानी-वस्त्रादि भिक्षा से प्राप्त कर मापको देता रहूंगा और माप जैसे साधुतुल्य महापुरुष की एक विनीत शिष्य की तरह सभी प्रकार से सेवा करता रहूंगा।" ___इस पर शिवकुमार ने अपनी सहमति प्रकट करते हुए एवं अपने प्रतिकठोर अभिग्रह से दृढ़धर्मा को परिचित कराते हुए कहा- "श्रावकोत्तम ! आप मेरे हित में यह प्रावश्यक समझते हैं कि मैं प्रशन-पान ग्रहण करता रहूं, तो मैं जीवन पर्यंत छट्ठभक्त की तपस्या करता रहूंगा भोर तप के पारणे के दिन भी प्राचाम्ल प्रत करूंगा।"
__इस प्रकार शिवकुमार और श्रावक दृढ़धर्मा ने परस्पर एक दूसरे का कहना मान लिया और वे दोनों अपनी-अपनी प्रतिज्ञानुसार कार्य में निरत हो गये।
राजप्रासाद में रहते हुए भी शिवकुमार ने निस्पृहभाव से एक महाश्रमण की तरह बारह वर्ष तक घोर तपश्चरण किया और अंत में पण्डित-मरण से प्रायु पूर्ण कर वह पांचवें ब्रह्म देवलोक में ब्रह्मेन्द्र के समान दश सागरोपम की भायु वाले महर्दिक और महान् तेजस्वी विद्युन्माली नामक देव के रूप में उत्पन्न हुमा। वहां
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