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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य जम्बू के पूर्वभव को अवश्य पहिचानती होगी। मेरी वह नागिला कैसी है ? उसका रूपलावण्य कैसा है और देखने में वह कैसी लगती है ?"
श्राविका वोली - "वह ठीक ऐसी ही दिखती है जैसी कि मैं। उसमें और मुझमें कोई विशेषता नहीं है। पर एक बात मैं समझ नहीं पाई कि आप तो पवित्रश्रमणाचार का पालन कर रहे हैं, अब आपको उस नागिला से क्या कार्य है?"
भवदेव - "पाणिग्रहण के तत्काल पश्चात् ही मैं उसे छोड़कर चला गया था।"
श्राविका - "यह तो पूर्वोपार्जित पुण्य के प्रताप से आपने बहुत अच्छा किया कि भवभ्रमण की विषवल्लरी को बढ़ने से पहले ही सुखा डाला ।"
__ भवदेव - "क्या नागिला शील, सदाचारादि - श्राविका के व्रतों का पालन करती हुई प्रादर्श जीवन बिता रही है ?"
श्राविका - "नागिला न केवल स्वयं ही आदर्श श्राविका के व्रतों का पालन करती है अपितु अन्य अनेक महिलाओं से भी पालन करवा रही है।"
भवदेव - "जिस प्रकार मैं उसका अहनिश स्मरण करता है, उसी प्रकार क्या वह भी मेरा स्मरण करती रहती है ?"
श्राविका - आप साधु होकर भी अपने कर्तव्य को भूल गए हैं पर वह श्राविका नागिला कल्याणकारी साधना-पथ पर चलती हुई आपकी तरह भूल नहीं कर सकती। वह श्राविका के योग्य उच्च भावनाओं का अनुचिंतन करती हुई कठोर तपस्याएं करती है, उत्तम आत्मार्थी साधु-साध्वियों के उपदेशामृत का पान करती है और प्रतिक्रमण प्रत्याख्यानादि से भवभ्रमण की महाव्याधि के समूलनाश के लिए सदा प्रयत्नशील रहती है।"
भवदेव - "श्राविके ! मैं नागिला को एक बार अपनी इन प्रांखों से देखना चाहता हूँ।"
श्राविका - "अशुचि के भाजन उसके शरीर को देखने से महामने! आपका कौनसा प्रयोजन सिद्ध होने वाला है ? मुझे आपने देख ही लिया है। मुझ में और उसमें कोई अन्तर नहीं है। जो नागिला है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही वह . नागिला है।"
भवदेव - "तो सच कहो श्राविके ! क्या तुम्ही नागिला हो?"
श्राविका-भंते ! मैं ही हैं वह अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाली और रुधिर, मांस, मज्जा, मूत्र, पुरीषादि अशुचि से परिपूर्णगात्रा नागिला।"
भवदेव श्राविका नागिला की ओर निनिमेष दृष्टि से देखता हुआ चित्रलिखित सा मौन खड़ा रहा।
नागिला ने वातावरण की निस्तब्धता को भंग करते हुए कहना प्रारम्भ किया- "महामुने ! मैंने अपनी पूज्या गुरुणीजी से एक बड़ा सुन्दर और शिक्षा
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