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जैन धर्म का मौसिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य जम्बू के पूर्वभव रख दिया और साथी श्रमणों के साथ वे अपने प्राश्रमस्थल की ओर लौट पड़े। भवदेव और अन्य परिजनों सहित अनेक ग्रामवासी भी मुनियों को पहुंचाने हेतु उनके पीछे पीछे चल दिये । साधुषों को थोड़ी दूरी तक पहुंचा कर महिलाएं अपने अपने घरों की पोर लौट गई। तदनन्तर कुछ प्रौर दूरी पर साधुनों को पहुंचाकर पुरुष-वर्ग भी लोटने लगा। उन लोगों ने वरवेशधारी भवदेव को भी लोटने का प्राग्रह करते हए कहा- "जैन श्रमण, "अब तुम लौट जात्रो"-इस प्रकार का सदोष बचन कभी नहीं बोलते, प्रतः भवदेव ! अब तुम भी लौट चलो।" . "पर बिना भैया के कहे मैं कैसे लौटूं" - यह सोचकर भवदेव उन लोगों के साथ नहीं लौटा और भवदत्त के पीछे-पीछे पागे की मोर बढ़ता ही गया। ग्राम से पर्याप्त दूरी पर निकल जाने के पश्चात् एक उपाय भवदेव के ध्यान में पाया कि बातचीत का क्रम चालू करने पर बहुत सम्भव है उसके बड़े भाई उसे लौटने का कुछ संकेत करें। वह बातचीत का सिलसिला चलाते हुए बोला- "श्रेष्ठार्य ! यह खेत अपना है, यह बनखण्ड और वह तालाब भी अपने ही हैं। वह जो उस पार का खेत है वह अपने पड़ौंसी का और उस छोर वाला पाम्रकुंज प्रापके परमसखा का है।"
___ इस प्रकार की अनेक बातं भवदेव ने कहीं पर भवदत्त ने "हां-हां, मैं जानता हं", इन वाक्यों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कहा। इस प्रकार बातों ही बातों में वे अपने गांव की सीमा से बहुत आगे बढ़ गये और कुछ ही समय में वे प्राचार्यश्री की सेवा में पहुंच गये।
वरोचित वेश में भवदेव को देखकर प्राचार्य सुस्थित ने पूछा - "यह सौम्य युवक कैसे पाया है ?"
भवदत्त ने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया - "प्रव्रज्यार्थ ।" प्राचार्य श्री ने भवदेव की ओर दृष्टिनिक्षेप करते हुए पूछा - "क्या यही
बात है ?"
कहीं बड़े भाई की अवहेलना न हो जाय इस विचार से भवदेव ने स्वीकृतिसूचक मुद्रा में मस्तक झुकाते हुए कहा - "यही बात है भगवन् !"
प्राचार्यदेव.द्वारा भवदेव को उसी समय जैनी भागवती-दीक्षा दे दी गई। पुषही मरणों पूर्व भोग-मार्ग की पोर उठे हुए चरण त्यागमार्ग पर चल पड़े। सभी भमरणों के मुख से सहसा निकल पड़ा - "प्रार्य भवदत्त ने जो कहा वही कर दिखाया।"
कालान्तर में मुनि भवदत्त ने अनशनपूर्वक समाधि के साथ नश्वर शरीर का त्याग किया पोर वे सौधर्मेन्द्र के सामानिक देव बने ।
उपर भवदेव दीक्षित हो जाने पर भी सदा अपनी पत्नी का चिन्तन किया करता था। वह बहिरंग रूप से तो श्रमणाचार का पालन कर रहा था परन्तु
मणि समसमायणं भवदेवस्स करे..... [जंबुचरियं (गुणपाल), पृ० १८]
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