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मार्य जम्बू के पूर्वमव] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू
१९१ आभ्यंतर में सदा उसकी प्राणप्रिया पत्नी ही बसी रहती थी। वह अहर्निश मन ही मन अपनी पत्नी के सम्बन्ध में सोचता रहता - "हाय ! मैं अपनी सद्यपरिणीता, अर्द्धशृगारिता और भोली-भाली प्रिया को प्रवंचिता सी छोड़कर प्रबजित हो गया। मेरी वह परित्यक्ता पत्नी मुझे किन-किन शब्दों में कोसती होगी? उस पर न मालूम क्या-क्या बीती होगी? वह कैसी होगी, किस प्रकार रहती होगी? जल से निकाल कर प्रतप्त मरुभूमि पर पटकी हुई मीन की भांति बहुत सम्भव है वह कब की ही अपने प्रारणों का परित्याग कर चुकी होगी अथवा अत्यन्त कृश हो वह अस्थिपंजरमात्रावशिष्ट रह गई होगी।"
इस प्रकार पूत पंचगव्य और अपवित्र मदिरा को एक साथ रखने वाले मूर्ख व्यक्ति की तरह भवदेव अपनी जीवनचर्या में प्रतिपल बाह्यरूपेण श्रमणाचार और अन्तर्मनसा कामिनी की चाह को साथ-साथ संजोये रखता था।
भवदत्त के स्वर्गगमन के पश्चात् भवदेव के मन में नागिला को देखने की बड़ी तीव्र उत्कण्ठा जागृत हुई। वह पाज के टूट जाने पर बंध में रोके हुए पानी की तरह बड़े वेग से स्थविरों की आज्ञा लिए बिना ही अपने ग्राम सुग्राम की ओर चल पड़ा। ग्राम के पास पहुँच कर वह एक चैत्यघर के पास विश्राम हेतु बैठ गया।
थोड़ी ही देर में एक संभ्रान्त घर की महिला एक ब्राह्मणी को साथ लिए हुए वहां पहुंची। उसने भवदेव मुनि को वन्दन-नमस्कार किया। मुनि भवदेव ने उस महिला से पूछा- "श्राविके! क्या प्रार्जव राष्ट्रकूट और उनकी पत्नी रेवती जीवित हैं ?"
उस महिला ने उत्तर दिया - "मुनिवर ! उन दोनों को तो इहलीला समाप्त किए बहुत समय बीत चुका है।"
यह सुनते ही मुनि के मुखमण्डल पर शोक की काली छाया छा गई । कुछ क्षण मौन एवं विचारमग्न रहने के पश्चात् उन्होंने थोड़ी हिचक के साथ पुनः प्रश्न किया- "धर्मनिष्ठे.! क्या भवदेव की पत्नी नागिला जीवित है ?"
इस प्रश्न को सुनकर वह महिला चौंकी। उसने साश्चर्य मुनि के मुख की ओर देखते हुए अनुमान लगाया कि बहुत सम्भव है यह भवदेव ही हों।
उस महिला ने प्रश्न किया - "आप आर्य भवदेव को किस प्रकार जानते हैं और यहां एकाकी किस कार्य से आये हैं ?"
भवदेव ने कहा- "मैं आर्य प्रार्जव का छोटा पुत्र भवदेव हैं। अपने बड़े भाई भवदत्त की इच्छा के कारण अपनी नवविवाहिता पत्नी को बिना पूछे तथा अन्तर्मन से न चाहते हुए भी मैं लज्जावश प्रवजित हो गया था। कहीं मेरी गणना अकुलीनों में न कर ली जाय, इस हेतु मैं नागिला के मुखकमल को देखने की चिरलालसा से प्रेरित हो यहां पाया है। "श्राविके! तुम तो नागिला
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