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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद एक श्रुतधर के निधन के साथ जिस अंगशास्त्र के व्यवछेद का तित्थोगाली के रचयिता ने उल्लेख किया है, उस पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो यही विचार संगत प्रतीत होगा कि एक श्रुतधर के दिवंगत होने पर उस ध्रुत का पूरणतः नहीं. अपितु अंशतः लोप हो गया। क्योंकि किसी भी अंगशास्त्र को सुत्र और अर्थसहित कण्ठस्थ रखने वाले उस शास्त्र के विशिष्ट ज्ञाता किसी एक समय में कोई एक श्रतधर हो सकते हैं पर उसके सामान्य सूत्र और अर्थ को कण्ठस्थ रखने वाले हजारों नहीं तो सैकड़ों मुनि उस समय में अवश्य रहे होंगे। ऐसी दशा में एक विशिष्ट सूत्रधर के निधन के साथ उस सूत्र का विशिष्ट ज्ञान विलुप्त हो सकता है न कि वह सम्पूर्ण शास्त्र हो। अपने समय के उन प्रधान और विशिष्ट श्रुतधर के न्यूनाधिक मेधावी शिष्य भी रहे होंगे जिन्होंने सम्पूर्ण न सही पर कुछ न कुछ तो प्राचारांग का अध्ययन उन श्रुतधर प्राचार्य के पास अवश्य किया होगा । उन शिष्यों के अतिरिक्त विशाल श्रमरण-श्रमणियों के संघों में प्रत्येक साधु अथवा साध्वी ने थोड़ा बहुत तो प्राचारांग का अध्ययन अवश्यमेव किया होगा। क्योंकि उस समय तक प्रत्येक श्रमण-श्रमणी के लिये प्राचारांग के अध्ययन की अनिवार्य प्राथमिकता मानी जाती थी। ऐसी स्थिति में एक श्रुतधर के निधन पर किसी भी श्रुत का स्वल्स अयवा अधिक अंश तो विलुप्त हो सकता है पर वह पूरा का पूरा अंगशास्त्र ही एक श्रुतधर के न रहने पर सम्पूर्णरूपेण विलुप्त हो जाय यह किसी भी तरह तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।
उपरोक्त सब तथ्यों से यही प्रकट होता है कि तित्थोगाली में जो अंगों के विच्छेद का विवरण दिया गया है वह वस्तुतः अंगों के अंशत: विच्छेद का ही विवरण है न कि सम्पूर्णतः विच्छेद का । द्वादशांगी का जो ह्रास हुअा है उसका चित्र माज हमारे समक्ष प्रत्यक्ष विद्यमान है।
द्वादशांगी विषयक दिगम्बर मान्यता दिगम्बर परम्परा वर्तमान काल में द्वादशांगी के किसी एक भी अंग का अस्तित्व नहीं मानती। उसकी मान्यतानुसार वी०नि० सं० ६८३ में ही द्वादशांगी विलुप्त हो गई। दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रंथ तिलोयपण्ण त्ति, अंगपण्यत्ति श्रुतावतार, आदिपुराण, उत्तरपुराण प्रादि में द्वादशांगी के विनष्ट होने का थोड़े. बहुत मतभेद के साथ जो विवरण दिया गया है, उसका मोटे तौर पर निम्नलिखित रूप से निष्कर्ष निकलता है :१. वीर निर्वाण सं० ६२ तक केवलज्ञान विद्यमान रहा। वीर नि०
सं० १ से १२ तक गौतम, वी०नि० सं० १२ से २४ तक प्रार्य
सुधर्मा और वो नि० सं० २४ से ६२ तक जम्बू स्वामी केवली रहे। २. वीर नि० सं० ६२ से १६२ तक १०० वर्ष का काल चतुदंश पूर्वघर
काल रहा । इन १०० वर्षों में नंदी (विष्णुकुमार), नंदीमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रवाह ये ५ श्रुतकेवली हुए।
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