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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [द्वा. वि. दिग. मान्यता अग्रसर कर अमृतत्व प्रदान करने वाले, जैन धर्म के आधारस्तम्भोपम मूल सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने वाले अमृत से भी अधिक मधुर निम्नलिखित अमोल वचन किसी छद्मस्थ प्राचार्य के मस्तिष्क की कल्पना से उद्भूत हैं :१. सव्वे पारणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा न
अज्जावेयव्वा न परिधितव्वा न परियावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा, एस
धम्मे सुद्धे निइए सासए........... । २. तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मन्नसि..... । ३. धम्मो मंगलमुक्किटं, अहिंसा संजमोतवो । इत्यादि ।
ये शाश्वत सत्य प्रभू महावीर द्वारा प्ररूपित हैं, इसमें किसी को किसी भी प्रकार की शंका नहीं होनी चाहिए। महावीर वाणी (द्वादशांगी) के पूर्णतः विनष्ट हो जाने की बात कहना वस्तुतः एक प्रकार से जिन शासन की प्रतिष्ठा के लिये हितकर नहीं अपितु अहितकर ही सिद्ध हो सकता है। क्योंकि इस प्रकार की मान्यता अभिव्यक्त करने पर सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि प्रभु महावीर की वाणी का एक भी शब्द विद्यमान नहीं है तो आज जो जैन धर्म और जैन सिद्धान्तों का स्वरूप विद्यमान है वह किनके शब्दों पर अवलंबित एवं आधारित है ? जो कुछ आज हमारे पास विद्यमान है क्या वह सब महावीर वाणी की देन नहीं है?
द्वादशांगी के बहुत बड़े भाग का विच्छेद हुअा है, इस तथ्य को कोई भी विचारक अस्वीकार नहीं कर सकता। द्वादशांगी की भाषा में भी थोड़ा बहुत परिवर्तन पाना सम्भव है पर वस्तुतः आर्य सुधर्मा द्वारा प्रभु की दिव्य ध्वनि के आधार पर ग्रथित एकादशांगी और पूर्वज्ञान आज भी अंशत: विद्यमान हैं और पंचम प्रारक की समाप्ति से कुछ समय पूर्व तक ये विद्यमान रहेंगे।
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