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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
१२. दृष्टिवाद
दिट्ठिवाय दृष्टिवाद- दृष्टिपात - यह प्रवचनपुरुष का बारहवां अंग है, जिसमें संसार के समस्त दर्शनों और नयों का निरूपण किया गया है' प्रथवा जिसमें सम्यक्त्व आदि दृष्टियों अर्थात् दर्शनों का विवेचन किया गया है ।"
दृष्टिवाद नामक यह बारहवां अंग विलुप्त हो चुका है अतः आज यह कहीं उपलब्ध नहीं होता। वीर निं० सं० १७० में श्रुतकेवली श्राचार्य भद्रबाहु के स्वर्गगमन के पश्चात् दृष्टिवाद का हास प्रारम्भ हुआ और वी० नि० सं० १००० में यह पूर्णतः ( शब्द रूप से पूर्णतः और अर्थ रूप से अधिकांशतः ) विलुप्त हो गया ।
स्थानांगसूत्र में दृष्टिवाद के दश नाम बताये गए हैं जो इस प्रकार हैं :
१. दृष्टिवाद, २. हेतुवाद, ३. भूतवाद, ४. तथ्यवाद, ५. सम्यक्वाद, ६. धर्मवाद, ७. भाषाविचय अथवा भाषाविजय, ८. पूर्वगत, ६. अनुयोगगत और १०. सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावह । *
[१२. दृष्टिवाद
समवायांग एवं नन्दीसूत्र के अनुसार दृष्टिवाद के पांच विभाग कहे गये हैं- परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका । इन पांचों विभागों के विभिन्न भेदप्रभेदों का समवायांग एवं नन्दीसूत्र में विवरण दिया गया है, जिनका सारांश यह है कि दृष्टिवाद के प्रथम विभाग परिकर्म के अन्तर्गत लिपिविज्ञान और सर्वांगपूर्ण गणित विद्या का विवेचन था । इसके दूसरे भेद सूत्र - विभाग में छिन्न-छेद नय, छिन्न-छेद नय, त्रिक नय तथा चतुर्नय की परिपाटियों का विस्तृत विवेचन था । नय की इन चार प्रकार की परिपाटियों में से प्रथम - छिन्न-छेद नय और चतुर्थ चतुर्नय- ये दो परिपाटियां निर्ग्रन्थों की और अछिन्न- छेद नय एवं त्रिनय की परिपाटियां प्राजीविकों की कही गई थीं ।
" दृष्टयो दर्शनानि नया वा उच्यन्ते श्रभिधीयन्ते पतन्ति वा अवतरन्ति यत्रासी दृष्टिवादो, दृष्टिपातो वा । प्रवचनपुरुषस्य द्वादशेऽङ्गे
२ दृष्टिदर्शनं सम्यक्त्वादि, वदनं वादो, दृष्टिनां वादो दृष्टिवादः ।
[ स्थानांग वृत्ति, ठा० ४, उ०.१]
[प्रवचन सारोद्धार, द्वार १४४]
3 गोयमा ! जंबूद्दीने गं दीवे भारहे वासे इमीसे प्रोसप्पिणीए ममं एगं वाससहस्सं पुम्बगए अगुसज्जिस्सइ
*
[ भगवतीसूत्र, शतक २०, उ० ८, सू० ६७७ सुत्तागमे, पृ० ८०४ ] दिट्ठिवायरस णं दस नामधिज्जा पण्णत्ता । तं जहा दिट्ठिवाएइ वा हेतुबाएर वा भूयवाएइ वा तच्चावाएइ वा सम्मावाएइ वा, धम्मावाएइ वा भासाविजएर बा, पुनगएइ वा, प्रोगगएइ वा सव्वपारण भूयजोवसससुहाबहेर वा ।
[ स्थानांग सूत्र, ठा० १० ]
* सेकि? से समासप्रो पंचविहे पण तं जहा परिकम्मे, सुताई, पुम्बगए,
रोगे चूलिया । ( नन्दी)
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