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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद
वीर - निर्वारण सं० १३०० में माढर गोत्रीय संभूति नामक श्रमण की मृत्यु होने पर द्वादशांगी के चतुर्थ अंग समवायांग सूत्र का विच्छेद हो जायगा । '
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वीर-नि० सं० १३५० में आर्जव मुनि के स्वर्गगमन के पश्चात् जिनेन्द्र भगवान् ने स्थानांग सूत्र के विच्छिन्न होने का निर्देश किया है।
वीर-नि० सं० १५०० में गौतम गोत्रीय महासत्वशाली श्रमण फल्गुमित्र के निधन पर दशाश्रुतस्कंध का विच्छेद होना बताया गया है । 3
वीर - निर्वाण सं० १९०० में भारद्वाज गोत्रीय महाश्रमण नाम से विख्यात श्रमरण के पश्चात् 'सूत्रकृतांग' का विच्छेद हो जायगा । "
वीर - नि० सं० २०,००० में हारित गोत्रीय विष्णु मुनि का निधन हो जाने पर श्राचारांग का विच्छेद हो जायगा । दुःषमा नामक पंचम श्रारक का थोड़ा-सा समय अवशिष्ट रहने पर क्षमा, तप आदि गुणों के भण्डार दु:प्रसह नाम के. रणगार होंगे। वे भरत क्षेत्र में अन्तिम प्रचारांगधर होंगे। उनके निधन के साथ ही चारित्र सहित श्राचारांग समूल नष्ट हो जायगा । अनुयोग सहित प्राचारांग ही श्रमरणगरण को प्रचार का बोध कराने वाला है अतः आचारांग के प्ररणष्ट हो जाने पर सर्वत्र अनाचार का साम्राज्य व्याप्त हो जायगा । प्रचार सूत्र के प्ररणष्ट हो जाने पर फिर श्रमरणों का नाम मात्र भी अवशिष्ट नहीं रहेगा । "
समवाय ववच्छेदो, तेरसहि सतेहि होहि वासाणं ।
माढर गोत्तस्स इहं, संभूतिजतिस्स मरणंमि ।। ८१०।। [ तित्थोगाली पन्ना ]
२ तेरसवरिस सतेहि, पण्णासा समहिएहि वोच्छेदो ।
१
प्रज्जव जतिस्स मरणे, ठारणस्स जिणेहि निद्दिट्ठी ॥ ६११ ॥ [ वही ]
३ भरिणदो दसारण छेदो पमरससएहि होइ वरिसारणं । समरणम्मि
फग्गु मित्ते, गोमगोते महासत्ते ॥ ८१३॥ [ वही ] भारद्दायसगुत्ते, सूयगडगं महासमरण नामे | गुणवीससतेहि जाही वरिसारण वोच्छित्ति ।। ६१४ ॥ । [ वही ]
५ विण्हु मुरिणम्मि मरते, हारित गोत्तम्मि होति वीसाए । रिसा सहस्से हि प्रायारंगस्स वोच्छेदो ॥१६॥ ग्रह दुसमाए सेसे, होही नामेरग दुप्पसह समरणो । प्रणगारो गुणगारो, खमागारो सो किर प्रायारवरो, अपच्छिमो होहीति भरहवासे । तेल समं प्रायारो, निस्सिही समं चरिते ।।८१८ || श्ररोगच्छिण्णायारो, यह समरणगरणस्स दावियायारो ।
तवागारो ||८१७॥
श्रायारम्मि परणट्ठे होहीति तइया प्ररणायारो ||८१६ ॥ चकमिउं वरतरं तिमिसगुहाए तमंधकाराए । नय तइया समरणाणं, भायार-सुत्ते परणट्ठमि ||८२० ।। [ वही ]
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