________________
विपाकसूत्र
१७८
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद अंतकृद्दशा
संख्यात हजार पद, ६०० सम० नंदी वृत्ति के
अनुसार २३,०४००० अनुत्तरोपपातिकदशा संख्यात हजार पद, १६२
सम०, नंदी वृ० के
अनुसार ४६,०८००० प्रश्नव्याकरण संख्यात हजार पद, १३००
सम० एवं नंदी वृ० के समवायांग और नंदी सूत्र अनुसार ६२,१६,००० में प्रश्नव्याकरण सत्र का
जो परिचय दिया गया है, वह उपलब्ध प्रश्नव्याकरण में विद्यमान
नहीं है। संख्यात हजार पद, सम० १२१६ और नंदीवृत्ति के
अनुसार १,८४,३२,००० दृष्टिवाद सख्यात हजार पद पूर्वो सहित बारहवां अंग
वीर निर्वाण सं० १०००
में विच्छिन्न हो गया। वस्तुस्थिति यह है कि द्वादशांगी का बहुत बड़ा अंश कालप्रभाव से विलुप्त हो चुका है अथवा विच्छिन्न-विकीर्ण हो चुका है। इस क्रमिक ह्रास के उपरान्त भी द्वादशांगी का जितना भाग आज उपलब्ध है वह अनमोल निधि है और साधनापथं में निरत मुमुक्षुत्रों के लिए बराबर मार्ग-दर्शन करता पा रहा है।
श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता है कि दुःषमा नामक प्रवर्तमान पंचम प्रारक के अन्तिम दिन के पूर्वाह्न काल तक भगवान महावीर का धर्मशासन और महावीर वाणी-द्वादशांगी अंशत: विद्यमान रह कर भव्यों का उद्धार करते रहेंगे। इस प्रकार की मान्यता के उपरान्त भी श्वेताम्बर परम्परा के एक प्राचीन ग्रन्थ 'तित्थोगाली पन्ना" में भगवान महावीर के निर्वाण पश्चात् २१००० वर्ष पर्यन्त पंचम प्रारक के अन्तिम दिन तक 'दशवकालिक सूत्र का अर्थ' 'पावश्यक सूत्र', 'अनुयोगद्वार' और 'नंदीसूत्र'- चार सूत्रों के अविछिन्न रूप से विद्यमान रहने के उल्लेख के साथ' द्वाद त्र होने के सम्बन्ध में निम्नलिखित रूप से विवरण दिया गया है :'वासाण सहस्सेण य, इकवीसाए इहं भरहवासे । दसवेगालिय प्रत्यो. दुप्पसहजइंमि नासिहिति ॥५०।। इगवीस सहस्साई, वासारणं वीरमोक्खगमणाम्रो । पम्वोच्छिन्न होही, प्रावस्सगं जाव तित्यं तु ॥५२।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org