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जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग [ द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद
इस प्रकार पूर्व के अर्थ की अनन्तता होने के कारण वीर्य की भी पूर्वार्थ के समान अनन्तता (सिद्ध) होती है ।"
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नंदी बाळबोध में प्रत्येक पूर्व के लेखन के लिए ग्रावश्यक मसि की जिस अतुल मात्रा का उल्लेख किया गया है उससे पूर्वो के संख्यात पद और अनन्तार्थयुक्त होने का आभास होता है। ये तथ्य यही प्रकट करते हैं कि पूर्वों की पदसंख्या असीम अर्थात् उत्कृष्टसंख्येय पदपरिमाण की थी ।
इन सब उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि द्वादशांगी का पूर्वकाल में बहुत बड़ा पद-परिमाण था । कालजन्य मन्दमेधा आदि कारणों से उसका निरन्तर हास होता रहा । श्राचार्य कालक ने अपने प्रशिष्य सागर को कभी गर्व न करने का उपदेश देते हुए जो धूलि की राशि का दृष्टांत दिया उस दृष्टांत से सहज ही यह समझ में आ जाता है कि वस्तुतः द्वादशांगी का हास किस प्रकार हुआ । कालकाचार्य ने अपनी मुट्ठी में धूलि भर कर उसे एक स्थान पर रखा । तत्पश्चात् उन्होंने उस धूलि की राशि को उस स्थान से हटाकर क्रमश: दूसरे, तीसरे तथा चौथे स्थान पर और फिर पांचवें स्थान पर रखा । आचार्य कालक ने अपने प्रशिष्य सागर को सम्बोधित करते हुए कहा- " वत्स ! जिस प्रकार यह धूलि की राशि एक स्थान से दूसरे, दूसरे से तीसरे और तीसरे से चौथे स्थान पर रखने के कारण निरन्तर कम होती गई है, ठीक इसी प्रकार तीर्थंकर भगवान् महावीर से गणधरों को जो द्वादशांगी का ज्ञान प्राप्त हुआ था वह गरणधरों से हमारे पूर्ववर्ती अनेक प्राचार्यों को, उनसे उनके शिष्यों और प्रशिष्यों आदि को प्राप्त हुआ, वह द्वादशांगी का ज्ञान एक स्थान से दूसरे, दूसरे से तीसरे और इसी क्रम से अनेकों स्थानों में प्राते-आते निरन्तर ह्रास को ही प्राप्त होता चला आया है । " ३४ प्रतिशय, ३५ वारणी के गुण और अनन्त ज्ञान-दर्शन- चरित्र के धारक प्रभु महावीर ने अपनी देशना में अनन्त भावभंगियों की अनिर्वचनीय एवं अनुपम तरंगों से कल्लोलित जिस श्रुतगंगा को प्रवाहित किया, उसे द्वादशांगी के रूप में आबद्ध करने का गणधरों ने यथाशक्ति पूरा प्रयास किया पर वे उसे निश्शेष
यतोऽनन्तार्थं पूर्वं भवति, तत्र च वीर्यमेव प्रतिपाद्यते श्रनन्तार्थता चातोऽवगन्तव्या तद्यथा :सव्व नईगंजा होज्ज बालुया गणरणमागया सन्ती । जत्तो बहुयतरांगो, एगस्स त्यो पुवस्स ||१| सव्व समुद्दाणजलं, जइ पत्थमियं हविज्ज संकलियं । एत्तो बहुयतरागो, अत्थो एगम पुव्वस्स ||२||
तदेवं पूर्वार्थस्यानन्त्याद्वीर्यस्य च तदर्थत्वादनन्तता वीर्यस्येति ।
[ सूत्र कृतांग, (वीर्याधिकार) शीलांकाचार्यकृता टीका, ग्रा. श्री जवाहरलालजी म. द्वारा संपादित, पृ. ३३५ ]
२ नंदी सूत्र ( धनपतिसिंह द्वारा प्रकाशित) पृ. ४६२ - ८४
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