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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[१२. दृष्टिवाद
एवं अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यजन और छिन्न- इन प्राठ महानिमित्तों द्वारा भविष्य को जानने की विधि का वर्णन किया गया था । इस पूर्व के पदों की संख्या १ करोड़ १० लाख बताई गई है ।
१९. प्रवन्ध्यपूर्व- -वन्ध्य शब्द का अर्थ है निष्फल ग्रथवा मोघ । इसके विपरीत जो कभी निष्फल न हो अर्थात् जो अमोघ हो उसे अबन्ध्य कहते हैं । इस प्रबन्ध्यपूर्व में ज्ञान, तप आदि सभी सत्कर्मों को शुभफल देने वाले तथा प्रमाद आदि असत्कर्मों को अशुभ फलदायक बताया गया था । शुभाशुभ कर्मों के फल निश्चित रूप से अमोघ होते हैं, कभी किसी भी दशा में निष्फल नहीं होते इसलिए इस ग्यारहवें पूर्व का नाम अबन्ध्यपूर्व रखा गया । इसकी पदसंख्या २६ करोड़ बताई गई है ।
दिगम्बर परम्परा में ग्यारहवें पूर्व का नाम "कल्याणवाद पूर्व" माना गया है । दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार कल्याणवाद नामक ग्यारहवें पूर्व में तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलदेवों, वासुदेवों और प्रतिवासुदेवों के गर्भावतरणोत्सवों, तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन कराने वाली सोलह भावनाओं एवं तपस्याओं का तथा चन्द्र व सूर्य के ग्रहरण, ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव, शकुन, उनके शुभाशुभ फल आदि का वर्णन किया गया था । श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी इस पूर्व की पदसंख्या २६ करोड़ ही मानी गई है ।
१२. प्राणायु पूर्व - इस पूर्व में श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार श्रायु और प्रारणों का भेद-प्रभेद सहित वर्णन किया गया था ।
दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार इसमें काय- चिकित्सा प्रमुख ग्रप्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म, जांगुलि, प्रक्रम, साधक आदि प्रायुर्वेद के भेद, इला, पिंगलादि प्राण, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि तत्वों के अनेक भेद, दश प्रारण, द्रव्य, द्रव्यों के उपकार तथा अपकार रूपों का वर्णन किया गया था ।
श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार प्रारणायुपूर्व की पदसंख्या १ करोड़ ५६ लाख और दिगम्बर मान्यतानुसार १३ करोड़ थी ।
१३. क्रियाविशाल पूर्व - इसमें संगीतशास्त्र, छन्द, अलंकार, पुरुषों की ७२ कलाएं, स्त्रियों की ६४ कलाएं, चौरासी प्रकार के शिल्प, विज्ञान, गर्भाधानादि कायिक क्रियाओं तथा सम्यग्दर्शन क्रिया, मुनीन्द्रवन्दन, नित्यनियम आदि प्राध्यात्मिक क्रियाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया था । लौकिक एवं लोकोत्तर सभी क्रियाओं का इसमें वर्णन किया जाने के कारण इस पूर्व का कलेवर प्रति विशाल था ।
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएं इसकी पद संख्या ६ करोड़ मानती हैं।
१४. लोकविन्दुसार - इसमें लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकार की विद्यायों का एवं सम्पूर्ण रूप से ज्ञान निष्पादित कराने वाली सर्वाक्षरसन्निपातादि
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