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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग
द्वादशांगी में मंगलाचरण परममंगल स्वरूप परमाहत् प्रभु महावीर के मुखारविन्द से प्रकट हुई सकल अघ-अमंगल-विघ्नविनाशिनी एवं समस्त महामंगल प्रदायिनी वाणी का प्रत्येक पद, वाक्य, शब्द और अक्षर तक परमोत्कृष्ट मंगलाचरण ही है। ऐसी स्थिति में द्वादशांगी के प्रादि, मध्य अथवा अन्त में पृथकरूपेण किसी मंगलाचरण की पावश्यकता ही नहीं रह जाती। निसर्गतः मंगल स्वरूप आगम के लिए भी यदि मंगलाचरण किया जाता है तो इससे निश्चितरूपेण 'अनवस्था दोष उत्पन्न हो जाता है। यही कारण है कि महावीरवाणी (द्वादशांगी) को सूत्र रूप में प्रथित करते समय भगवान् के गणधरों ने द्वादशांगी के किसी भी अंग के आदि, मध्य अथवा अंत में स्तुति-नमस्कृति-परक मंगलाचरण के रूप में कोई पृथक मंगलपाठ नहीं दिया है।
द्वादशांगी के पांचवें अंग 'व्याख्या प्रज्ञप्ति' के आदि में पंचपरमेष्ठिनमस्कारमंत्र, 'रणमो बंभीए लिवीए' और 'णमो सुयस्स' - इन प्रकार के उल्लेखों से, शतक संख्या १५, १७, २३ और २६ के प्रारम्भ में 'णमो सुयदेवयाए भगवईए' इस पद से तथा अंत में संघ-स्तुति के पश्चात् गौतमादि गणषरों, भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति, द्वादशांगी रूप गरिणपिटक, श्रुतदेवता, प्रवचनदेवी, कंभधर यक्ष, ब्रह्मशान्ति, वैरोट्यादेवी, विद्यादेवी और अंतहंडी को नमस्कार किया गया है। इस प्रकार 'व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र' में प्रादि से अंत तक नमनादि के रूप में कुल मिलाकर १८ बार मंगलाचरण किया गया है ।
उपरोक्त मंगलाचरणों में पंचपरमेष्ठिनमस्कारमंत्र से लेकर संघस्तुति तक के ८ मंगलाचरणों को नवांगी टीकाकार प्राचार्य अभय देव सूरि ने यद्यपि स्पष्ट शब्दों में सूत्रकार द्वारा किये गए मंगलाचरण नहीं बताया है तथापि अपनी टीका में इन्हें स्थान देकर और शेष १० मंगलाचरणों के लिए - "णमो गोयमाइणं गणहराणमित्यादयः पुस्तक-लेखककृता नमस्काराः" यह कह कर एक प्रकार से सूत्रकार द्वारा किये गए मंगलाचरण ही माना है। परन्तु वस्तुतः सम्बन्धित तथ्यों पर समीचीनतया विचार करने पर उपरोक्त १८ मंगलांचरणों में से एक भी मंगलाचरण सूत्रकार द्वारा किया हुआ प्रतीत नहीं होता। निम्नलिखित 'तथ्यों से यह सिद्ध होता है. कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में दिये गए मंगलाचरण सूत्रकार द्वारा किये गए मंगलाचरण नहीं हैं :
१. यदि द्वादशांगी की रचना के समय सूत्रकार ने मंगलचरण का पाठ दिया होता तो द्वादशांगी के क्रम में प्रथम स्थान पर माने जाने वाले तथा द्वादशांगी में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राचारांग सूत्र में सर्वप्रथम इस प्रकार पृथक रूप से मंगलाचरण का पाठ दिया जाता। पर वस्तुस्थिति इससे विपरीत है । . अनेक प्राचीन प्रतियों में "मो सुयस्स" - यह पाठ उल्लिखित नहीं किया गया है ।
[सम्पादक
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