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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [द्वादशांगी में मंगलाय. प्रागमवाचना के समय में प्रागमों को लिपिबद्ध करते समय व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग की आदि में पंचपरमेष्ठि को नमस्कार और ब्राह्मी लिपि आदि को नमस्कार के पाठ प्रविष्ट हुए हों।
इसे स्वीकार कर लेने पर भी यह प्रश्न तो ज्यों का त्यों बना ही रहता है कि नमस्कारादि के रूप में यह मंगलाचरण प्रथम अंग प्राचारांग में तथा द्वादशांगी के अन्य किसी अंग में उल्लिखित न किए जाकर केवल व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक पांचवें अंग में क्यों उल्लिखित किए गए हैं ?
वस्तुस्थिति ऐसी प्रतीत होती है कि द्वादशांगी की रचना करते समय गणधारों ने द्वादशांगी के प्रत्येक अक्षर को महामंगलकारी मानते हुए किसी भी अंग के ग्रादि, मध्य अथवा अंत में पृथकतः मंगलाचरण उल्लिखित नहीं किया। कालान्तर में मंगलचरगण प्रणाली के अत्यधिक लोकप्रिय बन जाने की स्थिति में चूणिकारों वृत्तिकारों आदि ने जैन आगमों के आदि, मध्य और अन्त के कुछ सूत्रपाठों को ही मंगलाचरणात्मक सिद्ध करते हुए आदि मंगल, मध्य मंगल और अन्त मंगल की कल्पना विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत की।
___ व्याख्याप्रज्ञप्ति के आदि, मध्य और अन्त में पृथकतः कुल मिला कर १८ मंगलाचरण प्रस्तुत करने की नूतन पद्धति के पीछे क्या कारण हो सकता है, इस पर गम्भीरतापर्वक विचार करने पर यह ध्यान में आता है कि भगवती सूत्र में इष्टलाभ, लोकपाल वर्णन, चरमोत्पात, देवसहाय प्राप्त रथ-मूसल एवं महाशिलाकण्टक संग्राम और गोशालक द्वारा प्रभु महावीर के समवसरण में तेजोलेष्या द्वारा श्रमण-निग्रन्थों के दहन जैसे ग्रनिष्ट और भयोत्तेजक प्रसंगों का चित्रण हुअा है। संभव है किसी मन्द सत्वशाली शिष्य को किसी तरह इसके पठन-पाठन के समय किसी प्रकार का कोई विघ्न न हो जाय अतः शिष्यहिताय, विघ्नोपशान्ति और समाधिलाभ के लिए ग्राचार्यों ने इस सत्र में साक्षात् मंगल विधान किया हो और तदनन्तर लिपिकारों एवं उनका अनुसरण करते हुए प्रतिलिपिकारों ने इन मंगलाचरणों की संख्या में वृद्धि की हो ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ के मंगलाचरण के पश्चात् २ से १४ तक के शतकों में मंगलाचरण न करके १५ वें शतक में - जो कि गोशालक का प्रकरण है, पुनः मंगलाचरगा किया गया है। इससे भी इस विचार को पुष्टि मिलती है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में गोशालक के रौद्र और अप्रीतिकारक प्रकरण आदि की विद्यमानता के कारण ही इतनी अधिक संख्या में मंगलाचरण किये गए हों।
वस्तुतः ये मंगलाचरण मूत्रकार द्वारा नहीं अपितु पश्चाद्वर्ती काल में संभवतः प्राचार्यों की अनुमति मे लिपिकारों एवं प्रतिलिपिकारों द्वारा ही किये गए हैं। हम मायल में प्रागमनिगगात मनि और विद्वान विचारक अवश्य और प्रकाश डालगे, मी ग्राणा है।
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