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केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा
द्वादशांगी का ह्रास एवं विच्छेद
द्वादशांगी के सम्बन्ध में इससे पूर्व जो तथ्य प्रस्तुत किये गए हैं उनसे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि निखिल विश्वसत्वैकबन्धु सर्वभूतानुकम्पी चरम तीर्थकर भगवान महावीर की पतितपावनी, सर्वोत्कृष्ट मंगलप्रदायिनी उस अमोघ वाणी का नाम ही द्वादशांगी है जिसे उनके ११ गणधरों ने सूत्र रूप से ग्रथित किया । यह भी बताया जा चुका है कि आर्य सुधर्मा गणधरों में दीर्घायुष्क थे अतः शेष सब गणधरों ने अपने-अपने गरण आर्य सुधर्मा के अधीन कर मोक्ष प्राप्त किया और इसके परिणामस्वरूप न उनकी शिष्य संतति ही अवशिष्ट रही और न उनके द्वारा ग्रथित द्वादशांगी ही । भगवान् महावीर की निर्वाणरात्रि में ही इन्द्रभूति गौतम को केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई ग्रतः भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर पद पर प्रार्य सुधर्मा को ही आसीन किया गया । ऐसी दशा में यह स्वतः ही सिद्ध हो जाता है कि जिस प्रकार आज की श्रमण परम्परा आर्य सुधर्मा की शिष्य परम्परा है उसी प्रकार ग्राज की श्रुतपरम्परा भी प्रार्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित द्वादशांगी ही है ।
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भगवान् महावीर ने विकट भवाटवी के उस पार पहुंचाने वाला, जन्म, जरा, मृत्यु के अनवरत चक्र से परित्राण करने वाला अनिर्वचनीय शाश्वत सुखधाम मोक्ष का जो प्रशस्त पथ प्रदर्शित किया था, उस मुक्तिपथ पर अग्रसर होने वाले असंख्य साधकों को आर्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित द्वादशांगी प्रकाशदीप की तरह २५०० वर्ष से आज तक पथप्रदर्शन करती आ रही है । इस ढाई हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में भीषण द्वादशवार्षिक दुष्कालों जैसे प्राकृतिक प्रकोपों, सामाजिक, ग्रार्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक क्रान्तियों आदि के कुप्रभावों से प्रार्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित द्वादशांगी भी पूर्णतः प्रछूती नहीं रह पाई । इस सब के अतिरिक्त कालप्रभाव, बुद्धिमान्द्य, प्रमाद, शिथिलाचार, सम्प्रदायभेद, व्यामोह आदि का घातक दुष्प्रभाव भी द्वादशांगी पर पड़ा। यद्यपि ग्रागमनिष्णात आचार्यों, स्वाध्यायनिरत श्रमरण-श्रमणियों एवं जिनशासन के हितार्थ अपना सर्वस्व तक न्यौछावर कर देने वाले सद्गृहस्थों ने श्रुतशास्त्रों को अक्षुण्ण और सुरक्षित att रखने के लिये सामूहिक तथा व्यक्तिगत रूप से समय २ पर प्रयास किये, अनेक वार श्रमण श्रमणी वर्ग और संघ ने एकत्रित हो आगम-वाचनाएं कीं किन्तु फिर भी काल अपनी काली छाया फैलाने में येन केन प्रकारेण सफल होता ही गया। परिणामतः उपरिवति दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों के कारण द्वादशांगी का समय-समय पर बड़ा ह्रास हुआ ।
द्वादशांगी का कितना भाग आज हमारे पास विद्यमान है और कितना भाग हम अब तक खो चुके हैं, इस प्रकार का विवरण प्रस्तुत करने से पूर्व यह वताना आवश्यक है कि मूलतः अविच्छिन्नावस्था में द्वादशांगी का आकार-प्रकार कितना विशाल था । इस दृष्टि से प्रार्य सुधर्मा के समय में द्वादशांगी का जिस प्रकार का ग्राकार-प्रकार था, उसकी तालिका यहां प्रस्तुत की जा रही है ।
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