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पाचारांग ] केवलिकाल : मार्य सुधर्मा
१०१ . व्यवहारकल्प' और पंचकल्पभाष्य में भी आचारांग-नियुक्तिकार को तरह प्राचारप्रकल्प को नवम पूर्व से नियंढ माना गया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि प्राचारप्रकल्प (निशीथ) आचारांग का अंग नहीं अपितु अपना पृथक अस्तित्व रखता है।
___ "धर्म प्रकरण" में "प्राचारप्रकल्प" शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है :- "प्राचार आचारांगम्, प्रकल्पो निशीथाध्ययनम्-तस्यैव पंचमचूला, आचारेण सहितः प्रकल्प प्राचारप्रकल्पः निशीथाध्ययनसहिते पाचारांगे।
नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि ने समवायांग-टीका में 'प्राचारप्रकल्प' शब्द का दो प्रकार से अर्थ करते हुए लिखा है- "प्राचारः प्रथमांगस्तस्य प्रकल्पोऽध्ययनविशेषो निशीथमित्यपराभिधानस्य, वा साध्वाचारस्य ज्ञानादि विषयस्य प्रकल्पोऽध्यवसायमित्याचारप्रकल्पः ।"
उपरोक्त व्याख्यानों में दोनों टीकाकारों ने प्राचार शब्द का प्राचारांग पौर प्रकल्प का अर्थ निशीथाध्ययन किया है, इससे भी दोनों का एक दूसरे से पार्थक्य तो सिद्ध होता ही है। नियुक्तिकार के अभिमत से प्रभावित होकर उन्होंने निशीथ को आचारांग का अध्ययनविशेष अथवा पांचवीं चूला लिख दिया है पर जो २८ प्रकार का प्राचारप्रकल्प ऊपर बताया गया है उससे भी निशीथ के आचारांग का अध्ययन होने की संगति बिल्कुल नहीं बैठती। क्योंकि २८ प्रकार के प्राचारप्रकल्प में शस्त्रपरिज्ञा से लेकर विमुक्ति तक के आचारांग के २५ अध्ययन और उग्धाइये, अणुग्धाइये और आरोवणा- ये निशीथ के तीन प्रकार - इस तरह कुल मिलाकर २८ भेद गिना दिये गये हैं अतः निशीथ की प्राचारांग के २५ अध्ययनों में किसी भी तरह गणना नहीं की जा सकती। आगम में आचारांग के २५ अध्ययन होने का उल्लेख है न कि २६ का। ऐसी दशा में यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि प्राचारांग से प्राचारप्रकल्प अर्थात् निशीथ सदा से पृथक् ही माना जाता रहा है।
आचारांग और निशीथ के पृथक्-पृथक् और भिन्न-भिन्न होने का एक सबसे अधिक सशक्त और, अकाट्य प्रमाण यह है कि प्राचारांग कहीं से नियंढ नहीं है, उद्धृत नहीं है जब कि निशीथ को नियुक्तिकार, वृत्तिकार, चुरिणकार आदि सभी विद्वान् एकमत हो नवम पूर्व की तृतीय वस्तु के प्राचार नामक बीसवें प्राभृत. से उद्धत अथवा निव्यूंढ मानते हैं। ऐसी स्थिति में निशीथ को प्राचारांग का अध्ययन अथवा अंग नहीं माना जा सकता। हां, साध्वाचार के लिये परमोपयोगी होने के कारण इसे पाचारांग की चूला माना जा सकता है, वह भी पांचवीं नहीं अपितु पहली और अंतिम अर्थात् एक मात्र । 'मायारपकप्पो उ नवमे पुष्वंमि भासि सोषीय । तत्तोम्वि य निज्जूढो. इहारिणयतो किं न सरिभवे ॥
[व्यवहारकल्प] २ मायारदसाकप्पो ववहारो नवमपुव्वाणिसंदा चारित्तरक्खणट्ठा सुयकडस्सुवरिठविताई...
[पंचकल्पभाष्य'
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