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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [८. अंतगडदसामो के अधिकारी हो सकते हैं। निरन्तर ६ मास तक सात-सात मनुष्यों की हत्या करने वाला अर्जुन माली भी क्षमतापूर्वक तप की साधना से ६ माह की अल्प अवधि में ही मुक्ति का अधिकारी हो गया। सचमुच ही वीतराग-मार्ग पतितपावन है। अवस्था की दृष्टि से अतिमुक्त कुमार जैसा ७ वर्ष का बालक भी संयममार्ग को साधना के माध्यम से नर से नारायण और जीव से शिव पद की प्राप्ति का अधिकारी बताया गया है।
सातवें और आठवें वर्ग के २३ अध्ययनों में नन्दा नन्दमती एवं काली, सुकाली आदि श्रेणिक की २३ रानियों के साधनामय जीवन का वर्णन है। इन सब महासतियों ने मुक्तावली, रत्नावली, कनकावली, लघुसिंहविक्रीड़ित, और महासिंहविक्रीड़ित, लघुसर्वतोभद्र, महासर्वतोभद्र, भद्रोत्तर एवं आयंबिल वर्द्धमान जैसे तपों के द्वारा कर्मक्षय कर सिद्धि प्राप्त की।
अन्तकृत् दशा सूत्र की यह विशेषता है कि इसमें तद्भवमोक्षगामी जीवों काही वर्णन किया गया है। यह भौतिकता पर आध्यात्मिकता की विजय थी कि राजघराने के नरनारी विपुल ऐश्वर्य एवं अपरिमित भोगों को त्यागकर बड़ी संख्या में त्याग की ओर अग्रसर हुए।
अन्तकृत् दशा के उपलब्ध अध्ययनों के अतिरिक्त स्थानांग सूत्र में अन्य १० अध्ययनों का भी उल्लेख मिलता है । जैसे :
नमी मयंगे सोमिल्ले, रामगुत्ते सुदंसणे। जमाली अ भगाली अकिंकमे पल्लए इअ ।। फाले अअठ्ठपुत्ते य एमे.ते दस आहिया ।।
[स्थानांगसूत्र, स्थान १०] श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी अन्तकृतदशा और अनुत्तरोववाइय दशा के इन दश. अध्ययनों के नाम उपलब्ध होते हैं। प्राचार्य अकलंक ने अपने ग्रन्थ राजवार्तिक में प्रायः इसी रूप में इन अध्ययनों का उल्लेख किया है। धवला, जयधवला, अंगपण्णत्ती' आदि में भी इन दोनों अंगों के अध्ययनों का उल्लेख है और वे राजवातिक तथा स्थानांग में लिखित नामों से मिलते-जुलते हैं।
वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृत् दशा में इन नाम वाले १० अध्ययनों का बिल्कुल उल्लेख न होकर अन्य पात्रों का जो वर्णन मिलता है इसका प्रमुख कारण वाचना-भेद ही हो सकता है ।
६. प्रणुत्तरोववाइयवसा द्वादशांगी के क्रम में अनुत्तरोपपातिकदशा नौवां अंग है। इसमें १ श्रुतस्कंध ३ वर्ग, ३ उद्देशनकाल, ३ समुद्देशनकाल, परिमित वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, ' मायंग रामपुत्तो सोमिल जमलीकरणाम किक्कंबी । सुदंसरणो बलीको य गमी अलंबद्ध पुत्तलया ॥ ५१ ।। [अंग पण्णत्ती]
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