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प्रश्नव्याकरण
केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा हैं। इसमें बताया गया है कि पग-पग पर वध-बन्ध-क्लेशादि की बाहल्यता को उपस्थित करने वाले प्रशाश्वत परिग्रह के लिये ही प्राणी सैकड़ों प्रकार के शिल्प ग्रोर अनेक प्रकार की कलाओं को सीखता है। परिग्रह की वृद्धि के लिये ही पुरुप की बहतर कलायों एवं ६४ महिला-गुग्गों तथा शिल्प, सेवा प्रादि का शिक्षण प्राप्त किया जाता है। परिग्रह के हेतु ही मानव हिंसा, झूठ, अदत्तहरण ग्रादि दुष्कर्म तथा भूख, प्याम, अपमान आदि विविध कष्टों को सहन करता है । परिग्रह से बढ़कर मनुष्यलोक में अन्य कोई बन्धन नहीं है । परिग्रह से क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। परिग्रह में संसक्त प्रारणी इस लोक में भी महान् दुःखी बनता है और परलोक में भी त्रस-स्थावर प्रादि जीवयोनियों में दीर्घकाल तक भ्रमण करता हुग्रा दारुण दुःखों का भागी बनता है। अध्ययन के अन्त में बताया गया है कि परिग्रह वस्तुतः मोक्षमार्ग में अवरोध उत्पन्न करने वाला अर्गला रूप अन्तिम अधर्म द्वार है।
इन पांच प्रकार के प्राथवों से कर्मरज का संचय कर जीव चतुर्गतिक संसार में अनन्त काल तक भटकते रहते हैं। भव-भ्रमरण में निरन्तर भटकते हुए प्राणियों की दयनीय दशा पर गहरा दुःख प्रकट करते हुए सूत्रकार ने कहा है - "सब दुःखों को दूर करने वाला जिनवाणी रूपी औषध सभी को निःशुल्क दिया जा रहा है पर जगजीव उसका सेवन नहीं करके असह्य दुःख भोग रहे हैं, क्या किया जाय ?"
दूसरे श्रुतस्कन्ध में ५ धर्मद्वारों अर्थात् संवरद्वारों का वर्णन किया गया है । अहिंसा (१), सत्य (२), दत्तादान (३), ब्रह्मचर्य (४) और अपरिग्रह (५) ये पांच धर्मद्वार हैं।
१. द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में अहिंसा को प्रथम धर्म बताते हुए कहा गया है कि यह देव, मनुष्य और असुरादि लोक में दीप के समान प्रकाशक और सब की शरणभूत है। दया, शान्ति, उत्सव, यज्ञ, पूजा आदि शब्दों को अहिंसा के ही पर्यायवाची शब्द बताते हुए इसके ६० नाम दिये गए हैं। अहिंसा को पक्षियों के लिए आकाश और समुद्र में जहाज के समान जगजीवों का आधार माना गया है। जीव मात्र के लिए अहिंसा को क्षेमंकरी बताते हुए कहा गया है कि अहिंसा अपरिमितज्ञानी, त्रिलोकपूज्य तीर्थंकरों द्वारा सुदृष्ट, प्रवधिज्ञानियों द्वारा ज्ञात, ऋजुमति, विपुलमति के धारकों द्वारा जानी गई, पूर्वधारियों द्वारा पढ़ी गई और विविध प्रकार के ज्ञान, तप और लब्धिधर साधकों द्वारा अनपालित एवं उपदिष्ट है। बड़े-बड़े महात्मानों द्वारा भगवती अहिंसा प्रशंसित. है। इस अध्ययन में अहिंसा के रक्षण हेतु आहारशुद्धि को परमावश्यक बताया गया है। पटकायिक जीवों की दया के लिए शुद्ध पाहार की गवेषणा का इसमें उपदेश दिया गया है। अहिंसक मुनि को कैसे और किस प्रकार के प्राहार की गवेषणा करनी चाहिए, यह इसमें बड़े विस्तार के साथ बताया गया है। जो पाहार साधु के लिए कृत, कारित और बुला कर दिया गया न हो, प्रोद्देशिक
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