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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [१०. पन्हावागरण निकाल दी गई और उनके स्थान पर प्राश्रव एवं संवर का समावेश कर दिया गया।" 'अभयदेव सूरि का यह कथन ठीक प्रतीत होता है ।
आगम के मलपाठ से यह स्पष्टतया प्रकट होता है कि भूतकाल की घटनाओं एवं अतीन्द्रिय विषयों के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष के समान प्रतीति कराने वाली चमत्कारपूर्ण दर्पणप्रश्न, अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्न आदि अनेक विद्याएं इस अंग में विद्यमान थीं। उन प्रश्नों द्वारा अत्यन्त निगूढ़ मनोगत प्रश्नों तक का पूर्ण प्रतीतिकारक वास्तविक उत्तर दे दिया जाता था और इस प्रकार के प्रत्यद्भुत चमत्कार से लोगों के हृदय में दृढ़ विश्वास उत्पन्न हो जाता था कि प्रतीत काल में, तीर्थंकर निश्चित रूप से हुए हैं तभी उन्होंने इस प्रकार के अलौकिक प्रश्नों का प्रतिपादन किया है। यदि अतिशय ज्ञानी तीर्थकर नहीं हुए होते तो इस प्रकार के प्रश्नों (विद्याओं) का प्रादुर्भाव ही नहीं होता।
ऐसा प्रतीत होता है कि जैन सिद्धान्त के अनुरूप भारम्भ-समारम्भ पूर्ण विद्यानों एवं निमित्तकथन आदि से सर्वथा बचते हुए प्राध्यात्मिक अम्युन्नति, प्रतीति अथवा धर्माभ्युदय हेतु अपवाद रूप से ही इस प्रकार की विद्यामों का उपयोग किया जाता होगा। परन्तु कालप्रभाव से परिवर्तित परिस्थितियों में पूर्वाचार्यों को आध्यात्मिक अभ्युत्थान में सहायक उन विद्यानों के दुरुपयोग की आशंका हुई तो उन्होंने उन विद्याओं को इस अंग में से निकाल दिया।।
वास्तविकता क्या है, यह वस्तुतः विद्वानों के लिए गहन शोध का एक अच्छा विषय है। वर्तमान में प्रश्नव्याकरणसूत्र १३०० श्लोकप्रमारण कहा जाता है।
वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरणसूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों में प्रतिपादित विषय का सारांश इस प्रकार है :
प्रथम श्रुतस्कन्ध में ५ आश्रव द्वारों का निरूपण किया गया है ।
१. प्रथम 'अधर्मद्वार' में हिंसा का पांच प्रकार से वर्णन किया गया है। वीतराग जिनेश्वर ने हिंसा को पापरूप, अनार्य (कर्म) और नरक गति में ले जाने वाला बताया है। प्रारणवध आदि इसके ३० नाम दिये गए हैं। इसमें यह समझाया गया है कि असंयमी, अविरति और मन, वारणी तथा कार्य के प्रशुभ योग वाले जीव, पशु-पक्षी-कीटादि जीवों की हिंसा करते हैं। बस जीवों की हिंसा
अय प्रश्नध्याकरणाख्यं दशमांगं व्याख्यायते । अथ कोऽस्याभिधानस्यार्थः ? उच्यते प्रश्नीः अंगुष्ठादिप्रश्न विद्यास्ता व्याक्रियतेऽस्मिन्निति प्रश्नव्याकरणं । क्वचित्प्रश्नव्याकरणदशा इति दृश्यते तत्र प्रश्नानां विद्याविशेषाणां यानि व्याकरणानि तेषां प्रतिपादनपरादशादशाध्ययनप्रतिबद्धाः ग्रन्थपद्धतयः इति प्रश्नव्याकरणदशाः। अयं च व्युत्पत्यर्थोऽस्यपूर्वकालेऽभूदिदानी त्वाश्रवपंचक संवरपंचकव्याकृतिरेवेहोपलभ्यतेऽतिशयानां पूर्वाधारदंयुगीनां पुष्टालंबनप्रतिविपुरुषापेक्षयोतारितत्वादिति ।
[प्रश्नव्याकरण, अभयदेवमूरिकृता. टीका, पृ० १ (धनपतिसिंह)]
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