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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [७. उवासगदसाम्रो महावीर उस समय राजगृह नगर में ही विराजमान थे। उन्होंने अपने ज्येष्ठ शिष्य गौतम द्वारा महाशतक को भूलसुधार के लिए प्रेरित किया। ... नौवें अध्ययन में नन्दिनीपिता और दशवें अध्ययन में सालिहीपिता नामक दो श्रावकों के जीवन का परिचय दिया गया है। उन दोनों के यहां चालीसचालीस हजार पशु और बारह-बारह करोड़ की सम्पदा थी। अन्त में इन दोनों श्रावकों ने भी पडिमाधारीपन की साधना कर प्रारम्भ-परिग्रह से विरक्ति स्वीकार की ओर अन्त समय में अनशनपूर्वक काल कर प्रथम स्वर्ग में महद्धिक देव रूप से उत्पन्न हुए।
___ शास्त्र में वर्णित ये सभी श्रावक बारह व्रतधारी उपासक थे। महाशतक को छोड़ सबने एक-एक पत्नी के अतिरिक्त मैथुन-सेवन का त्याग कर रक्खा था। सबने १४ वर्ष तक उपासक धर्म की पालना कर १५ वें वर्ष श्रमणधर्म के निकट पहुंचने की भावना से अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को गार्हस्थ्य सम्हला कर श्रावक के वेश में शनैः शनैः प्रारम्भ-परिग्रह का त्याग वढ़ाकर अन्त में श्रमणभूत प्रतिमा में साधु की तरह त्रिकरण त्रियोग से पाप-निवृत्ति की साधना की।
आनन्द की साधना उपसर्ग रहित रही पर अन्य उपासकों- कामदेव से महाशतक तक को देवकृत उपसर्ग और शेष तीन को स्त्री का उपसर्ग होना बताया गया है। सबने २० वर्ष की अवधि तक श्रावक धर्म का पालन कर सद्गति प्राप्त की और आगामी भव में महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर वे सब मोक्ष के अधिकारी बनेंगे।
उपासकदशा का महत्व सद्गृहस्थों - श्रावक-श्राविकाओं के गृहस्थ धर्म पर समीचीनतया पूर्ण रूपेण प्रकाश डालने वाला यह सातवां अंग उपासकदशा वस्तुतः सभी गहस्थों के लिए बड़ा ही उपयोगी है। इसमें जिस प्रकार के सदाचार का दिग्दर्शन कराया गया है, उसके अनुसार यदि प्रत्येक गृहस्थ अपने जीवन को ढालने का प्रयास करे तो यह मानवता के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है।
इसमें तत्कालीन भारत और भारतीयों के अतुल धनवैभव, अनुकरणीय सदाचार, उन्नत विचार, सुखपूर्ण आदर्श जीवन और प्रगाढ़ धर्मानुराग के दर्शन होते है।
८. अंतगडदसाम्रो • पाठवां अंग अन्तकृत्दशा है। इसमें १ श्रुतस्कंध, ८ वर्ग, ६० अध्ययन, ८ उद्देशनकाल और ८ ही समुद्देशनकाल तथा परिमित वाचनाएं हैं। इसमें अनुयोगद्वार, वेढा, श्लोक, निर्यक्तियां, संग्रहणियां, एवं प्रतिपनियां संख्यातमख्यात है। इसके पद-संख्यात हजार और अक्षर-संव्यात बताये गये हैं। वर्तमान में यह अंगशास्त्र ९०० श्लोकपरिमागा का है। इसके पाठा वर्ग क्रमशः १०,८,१३,१०, १०, १६, १३ और १० अध्ययनों में विभक्त हैं। प्रस्तुत मूत्र में
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