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केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा
४. समवायांग
द्वादशांगी के क्रम में समवायांग का चौथा स्थान है । इसमें कोटाकोटिसमवाय के पश्चात् जो द्वादशांगी का परिचय दिया गया है, उसमें और नन्दीसूत्र में समवायांग का परिचय निम्नलिखित रूप में उल्लिखित है :
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४. समवायांग ]
" समवायांग की परिमित वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ़ा (छन्दविशेष), संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियां, संख्यात संग्रहणियां, संख्यात प्रतिपत्तियां, एक श्रुतस्कन्ध, एक अध्ययन, एक उद्देशनकाल, एक ही समुद्देशनकाल, १,४४,००० पद और संख्यात अक्षर हैं। इसकी वर्णनपरिधि में अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस, अनन्त स्थावर और जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित भावों का वर्णन, प्ररूपरण, निदर्शन और उपदेश आता है ।"
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समवायांग का वर्तमान में उपलब्ध पाठ १६६७ श्लोक-परिमाण है। इसमें संख्याक्रम से संग्रह की प्रणाली के माध्यम से पृथ्वी, आकाश, और पाताल-इन तीनों लोकों के जीवादि समस्त तत्वों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव की दृष्टि से संख्या एक से लेकर कोटानुकोटि संख्या तक बड़ा महत्वपूर्ण परिचय दिया गया है । इसमें आध्यात्मिक तत्वों, तीर्थंकरों, गणधरों, चक्रवर्तियों और वासुदेवों से सम्बन्धित उल्लेखों के साथ-साथ भूगर्भ, भूगोल, खगोल-सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र एवं तारों प्रादि के सम्बन्ध में बड़ी ही उपयोगी सामग्री प्रस्तुत की गई है ।
स्थानांग की तरह समवायांग में भी संख्या के क्रम से तथा कहीं-कहीं उस प्रणाली को छोड़कर वस्तुनों के भेदोपभेद का वर्णन किया गया है। समवायांग सूत्र की प्रत्येक समवाय में समान संख्या वाले भिन्न-भिन्न विषयों एवं वस्तुयों से सम्बं धित सामग्री का संकलनात्मक संग्रह होने के कारण विषयानुक्रम से इसका परिचय दिया जाना संभव नहीं है अतः मोटे रूप में समवाय के क्रम को दृष्टिगत रखते हुए इसका संक्षिप्त परिचय यहां दिया जा रहा है ।
समवायांग में द्रव्य की अपेक्षा से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, आदि का ( १ ), क्षेत्र की अपेक्षा से लोक, अलोक, सिद्धशिला आदि का (२), समय, श्रावलिका, मुहूर्त आदि से लेकर पत्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, और पुद्गलपरावर्तन आदि काल की अपेक्षा से देवों, मनुष्यों, तिर्यंचों और नारक प्रादि जीवों की स्थिति आदि का ( ३ ), तथा भाव की अपेक्षा से ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि जीव-भाव और वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, गुरु, लघु आदि अजीव-भाव का (४) वर्णन किया गया है ।
समवायांग की पहली समवाय में एक संख्या वाले जीव, अजीव प्रदि तत्वों का उल्लेख करते हुये श्रात्मा, लोक, धर्म, अधर्म आदि को संग्रह नय की अपेक्षा से एक-एक बताया गया है। इसके पश्चात् एक लाख योजन की लम्बाई चौड़ाई वाले जम्बूद्वीप, सवार्थसिद्ध विमान, एक तारा वाले नक्षत्र, एक सागर की
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