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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [५. वियाह-पण्णत्ति राजगृह में, दान की महिमा देखकर गोशालक का आगमन और छः वर्ष तक भगवान् के साथ विहार, तिल के पौधे को देख कर गोशालक की भगवान से पृच्छा से लेकर गोशालक को तेजोलेश्या की प्राप्ति एवं उसके द्वारा भविष्य-कथन तक का वृत्तांत है।
१६ वें शतक के १४ उद्देशक हैं, जिनमें से पहले में अधिकरण, दूसरे में जरा, शोक, अवग्रह, शक्रेन्द्र की भाषा आदि, तीसरे उद्दे शक में कर्म-क्रियाविचार, चौथे में अधिक निर्जरा के हेतु, पांचवें में गंगदेव, छठे में स्वप्नविचार, सातवें में उपयोग, आठवें में लोक, नौवें में बली इन्द्र, दशवें में अवधिज्ञान, ग्यारहवें में द्वीपकुमार, बारहवें में उदधिकुमार, तेरहवें में दिशाकुमार और चौदहवें उद्देशक में स्तनितकुमार का वर्णन है ।
१७ वें शतक में १७ उद्देशक हैं। पहले उद्दे शक में उदायी हस्ती और क्रियाविचार, दूसरे में धार्मिक-अधार्मिक, धर्म, अधर्म, धर्माधर्म, जीव-बाल, पंडित और बालपण्डित आदि, तीसरे में शैलेषी विचार, चौथे में क्रिया, पांचवें में सुधर्मा सभा, छठे-सातवें में पृथ्वीकायिक, आठवें और नौवें में अपकायिक, दशवें-ग्यारहवें में वायुकायिक, १२ वें में एकेन्द्रिय, तेरहवें में नागकुमार, चौदहवें में स्वर्णकुमार, पन्द्रहवें में विद्युत्कुमार, १६ वें में वायुकुमार और १७ वें में अग्निकुमार का वर्णन है।
-- १८ वें शतक में १० उद्देशक हैं। पहले उद्देशक में प्रथम तथा अप्रथम का विचार, दूसरे में विशाखा नगर के कार्तिक सेठ की तपस्या, तीसरे में माकंदीपुत्र का स्थविरों से प्रश्नोत्तर, चार में प्राणातिपात, पांच में असुरकुमार, छः में गुड़ आदि के वर्ण प्रभृति, सात में केवली, उपधि, परिग्रह, मद्रक श्रावक के साथ अन्यतीथिक के प्रश्नोत्तर, देवासुरसंग्राम, पाठवें में अनगार क्रिया, नौवें में भव्य, द्रव्य, जीव, दशवें में सोमिल का भगवान् महावीर से शंकासमाधान, साधना, निर्वाण आदि का वर्णन किया गया है।
१६ वें शतक में १० उद्देशक हैं।
२० वें शतक में १० उद्देशक हैं। पहले उद्देशक में द्विन्द्रिय आदि जीवों के शरीर बन्ध आदि, दूसरे में प्राकाश, तीसरे में प्राणिवध प्रादि.१८ पाप और पापविरक्ति आदि, चौथे में इन्द्रियोपचय, पांचवें में परमाणु आदि, छठे में अन्तर प्रादि, सातवें में बन्ध, पाठवें में कर्मभूमि अकर्मभूमि, तीर्थकर और अन्तरकाल, कालिक सूत्र का विच्छेद-अविच्छेद, पूर्वज्ञान की स्थिति, तीर्थ, तीर्थंकर प्रादि, नौवें उद्देशक में चारणमुनि, और दशवें उद्देशक में सोपक्रम, निरुपक्रम आयु आदि का वर्णन है।
२१ वे शतक में ८ वर्ग और प्रत्येक वर्ग में दश-दश के हिसाब से ८० उद्देशक हैं।
२२ व शतक में ६ वर्ग और छहों वर्गों में – प्रत्येक वर्ग के दश-दश उदेशक के हिसाब से कुल ६० उद्देशक हैं ।
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