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५. बियाह - पण्णत्ति ]
केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा
मार्मिक वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है क्रमशः ८४ लाख और ६६ लाख योद्धा दोनों पक्षों के
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कि उन दोनों महायुद्धों में मारे गये । १
व्याख्या प्रज्ञप्ति के २१ वें, २२ वें और २३ वें शतकों में जो वनस्पतियों का वर्गीकरण किया गया है वह अनुपम है ।
इस प्रकार व्याख्या प्रज्ञप्ति में ३६ हजार प्रश्नोत्तरों के रूप में विविध विषयों का अथाह ज्ञान संकलित कर लिया गया है जो जैन सिद्धान्त, इतिहास, भूगोल, राजनीति आदि अनेक दृष्टियों से बड़ा ही महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ प्राध्यात्मिक तत्व की कुंजी की संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है। तत्कालीन, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों पर व्याख्या प्रज्ञप्ति में दिये गये अनेक विवरण समीचीन रूप से साधिकारिक प्रकाश डालते हैं ।
इस पंचम अंग में देवगति प्राप्त करने वाले प्राणियों के सम्बन्ध में विचार करते हुए यह बताया गया है कि संयम का निरतिचार रूप से पलन करने वाले केवल बाहरी रूप से संयम का पालन करने वाले, असंयत, संयम के विराधक, श्रावकधर्म का न्यूनाधिक रूपेरण पालन करने वाले, श्रसंज्ञी जीव, तापस जो जिन प्रवचनों का पालन नहीं करते, कांदर्पिक, चरक अर्थात् त्रिदण्डी, लंगोटधारी परिव्राजक, कपिल के शिष्य, ज्ञानियों, साधुत्रों तथा धर्माचार्यों की निन्दा करने वाले, किल्विषिक अर्थात् बाह्य रूप से जैन श्रमरणाचार का पालन करने वाले और जिन मार्गानुयायी तियंच कम से कम और अधिक से अधिक किन-किन देवयोनियों में उत्पन्न हो सकते हैं । इस विवरण में बौद्ध भिक्षुकों का कोई उल्लेख नहीं किया गया है, यह केवल विचारणीय ही नहीं अपितु गहन शोध का विषय भी है । क्या वस्तुतः इस अंग की रचना के समय तक बौद्ध धर्म का इतना प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया था अथवा कोई अन्य कारण रहा है जिससे कि बौद्ध धर्म के भिक्षुग्रों का इस प्रकरण में नामोल्लेख तक नहीं किया गया है ?
सभी विद्वानों का यह तो निश्चित श्रभिमत है कि व्याख्या प्रज्ञप्ति का विषयवर्णन प्रति प्राचीन श्रौर प्राचार्य - परम्परागत है तथापि इसमें द्वादशांगी के पश्चादुवर्ती काल में रचित भागमों-रायपसेण इज्ज, उववाइय, पण्णवरणा, जीवाभिगम तथा नंदी प्रादि का उल्लेख करके अनेक स्थलों पर इसके विवरणों को तथा पूरे के पूरे उद्दे शकों को संक्षिप्त कर दिया गया हैं ।" यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि जब रायपसेर इज्ज आदि उपर्युक्त श्रागमों की रचना द्वादशांगी के पश्चात् हुई है तब पूर्वरचित व्याख्या प्रज्ञप्ति में बाद की रचनाओं के उल्लेख किस कारण किये गये हैं ? नन्दीसूत्र तो निश्चित रूप से वीर निर्वारण सं० ६५० के प्रास-पास की, वल्लभी-वाचना के सूत्रधार एवं नायक देवगिरिण क्षमाश्रमरण की संकलना मानी गई है।
विस्तृत जानकारी के लिये देखिये "जैनधर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग", १० ५१-५२३
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