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६. नायाधम्मकहाओ ]
haलिकाल : श्रयं सुधर्मा
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वित्त स्थिर रखा और अन्त में समाधिपूर्वक प्राण त्याग कर वह स्वर्ग का अधिकारी बना ।
चौदहवें 'तेतलीपुत्र' के अध्ययन में बताया है कि. दुःखावस्था में मनुष्य को सत्संग और धर्म जितना प्रिय लगता है उतना सुखावस्था में नहीं लगता। इसमें मित्र और प्रेमी का यह कर्त्तव्य बताया गया है कि वह अपने सखा एवं प्रियजन को सब प्रकार से धर्ममार्ग पर लगाने का प्रयत्न करे । पोटिल देव ने तेतली प्रधान को विविध प्रकार के कष्ट पहुंचाकर भी संयम-धर्म के अभिमुख किया। वस्तुतः इसी को उपकारियों के प्रत्युपकार का सही मार्ग बताया गया है ।
पन्द्रहवें नन्दीफल अध्ययन में बतलाया गया है कि नन्दीफल की तरह श्रज्ञातफल में लुभाने वाले को जीवन से हाथ धोना पड़ता है। इसमें यह उपदेश दिया गया है कि ज्ञानी को किसी भी दशा में रसना के अधीन नहीं होना चाहिये ।
सोलहवें "अमरकंका अध्ययन" में पाण्डवपत्नी द्रौपदी का पद्मनाभ द्वारा हस्तशीर्ष नगर से अपहरण और श्रीकृष्ण द्वारा अमरकंका में जाकर पद्मनाभ को पराजित करना, द्रौपदी को पुनः प्राप्त करना, लौटते समय कारणवशात् अप्रसन्न हो श्रीकृष्ण द्वारा पाण्डवों का निर्वासन, कुन्ती की प्रार्थना से द्रवित हो समुद्रतट पर मथुरा बसा कर पाण्डवों को वहाँ रहने की अनुमति स्थविरों की वारणी सुनकर पाण्डवों द्वारा मुनिव्रत ग्रहरण और संयम एवं तप की साधना से निर्वारणप्राप्ति बतलाई गई है । इसमें यह भी बताया गया है कि द्रौपदी ने अपने पूर्वभव में नागश्री ब्राह्मणी के रूप में तपस्वी मुनि को कड़वे तूंबे का साग बहरा कर दुर्लभबोधि की स्थिति का उपार्जन किया और उसके फलस्वरूप अनेक भवों में जन्ममरण के दुःख सहन कर वही नागश्री द्रौपदी के रूप में उत्पन्न हुई और अन्त में साधना कर ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुई । द्रौपदीहरण के प्रसंग में यहां "कछुल्ल नारद" की करतूतों का भी परिचय मिलता है ।
सत्रहवें अध्ययन में समुद्री अश्व के उदाहरण के माध्यम से समझाया गया है कि शब्द रूप आदि विषयों में लुभाने वाले व्यक्ति समुद्री अश्व की तरह पराधीन होते हैं और विषयों से विरक्त रहने वाले स्वाधीन होकर प्रात्मसुख के अधिकारी होते हैं ।
अठारहवें "सुसुमा" नामक अध्ययन में धन्ना सार्थवाह के उदाहरण से बताया गया है कि साधक को जीवन निर्वाह के लिये उदासीन भाव से प्रहार ग्रहण करना चाहिये । धन्ना सार्थवाह और उसके पुत्रों ने सुमुमा के अपहरणकर्त्ता नौरराट् का भीषण - प्रटवियों में निरन्तर पीछा करते हुए जिस प्रकार भूख के कारण मरणासन्न स्थिति में चिलात द्वारा मार कर पटकी हुई सुसुमा दारिका की मृत देह से अपनी क्षुधानिवृत्ति की, उसमें आत्मीयता के कारण मृत दारिका के मांसभक्षरण में धन्ना आदि के मन में किचित्मात्र भी राग का अंश नहीं हो सकता, केवल प्राणरक्षा का ही विचार हो सकता है। ठीक उसी प्रकार साधक
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