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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [६. नायाधम्मकहानो करने वाले बन गये। इस छठे अंग में उन धीर-वीर साधकों का भी वर्णन है जो घोरातिघोर परीषहों के उपस्थित होने पर भी संयम मार्ग से किंचित्मात्र भी विचलित नहीं हुए। इसमें देवलोकों के भोगोपभोग सुखादि का, देवलोक से च्यवन के पश्चात् मानव जीवन में पुनः साधनापथ पर अग्रसर होने वालों का, संयमविराधनाजन्य दोषों और संयमाराधन के गुणों का, लोकमुनि शुक परिव्राजक के जिन-शासन में आने का तथा शाश्वत मोक्ष सुख प्राप्त करने वाले साधकों आदि का वर्णन है।
ज्ञातृधर्मकथा की परिमित वाचनाएं, अनुयोग द्वार, वेढा छन्द, श्लोक, नियुक्तियाँ, संग्रहणियां और प्रतिपत्तियां प्रत्येक संख्यात-संख्यात हैं। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६ अध्ययन और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दश वर्ग हैं। दोनों श्रुतस्कन्धों के २६ उद्देशनकाल, २६ समुद्दे शनकाल, पांच लाख ७६ हजार पद, संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस, अनन्त स्थावर और जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित शाश्वत भाव कहे गए हैं। इसका वर्तमान में उपलब्ध पदपरिमारण ५५०० श्लोक प्रमाण है।
प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६ अध्ययनों के संक्षेप में चरित्र और कल्पित ये दो प्रकार बताये हैं। मेघ कुमार आदि के जो चरित्र बताये गये हैं वे सत्य उदाहरण हैं और तुम्ब आदि के उदाहरण कल्पित हैं जो भव्यजनों को प्रतिबोधित करने की दृष्टि से प्रस्तुत किये गए हैं।
धर्मकथाओं के जो दश वर्ग हैं उनमें से प्रत्येक धर्मकथा में ५००-५०० आख्यायिकाएं, एक-एक आख्यायिका में पांच सौ-पांच सौ उपाख्यायिकाएं और उनमें से एक-एक उपाख्यायिका में पांच सौ-पांच सौ आख्यायिका-उपाख्यायिकाएं हैं। इस प्रकार इन सबको मिलाकर कुल साढ़े तीन करोड़ उदाहरणस्वरूप कथाएं इसमें दी गई हैं।
प्रथम श्रुतस्कन्ध में ज्ञातृरूप-उदाहरणस्वरूप १६ अध्ययन तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध में धर्मकथात्रों के १० वर्ग कहे गए हैं । उनका सारांश इस प्रकार है :
प्रथम श्रुतस्कन्ध के मेघकुमार नामक प्रथम अध्ययन में राजपुत्र मेघकुमार की भगवान् महावीर की सेवा में दीक्षा तथा शय्यापरीषह से उसके खिन्न होने पर प्रभु द्वारा उसे संयम में स्थिर करने का वर्णन किया गया है। महावीर ने कहा"मेघ ! मेरुप्रभ हाथी के भव में तुमने दारुण दावानल से भयभीत खरगोश पर अनुकम्पा कर उसके प्रारणों की रक्षार्थ अपने प्राण दे दिए थे। उस अनुकम्पा के फलस्वरूप ही हाथी के भव से मरकर तुम इस भव में महाराज श्रेणिक के पुत्ररूप में उत्पन्न हुए हो।" भगवान् की वाणी से उद्बोधित हो कर मेघमनि ने श्रमणवर्ग की सेवार्थ अपना तन-मन-सर्वस्व समर्पित कर दिया और समीचीन रूपेण संयम का परिपालन कर आत्मकल्याण किया। । दूसरे धन्ना सार्थवाह के अध्ययन में विजय चोर और धन्ना के उदाहरण के माध्यम से साधक को यह समझाया गया है कि सुदीर्घकाल तक समीचीनतया
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