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५. विवाह पम्पत्ति] केवलिकाल : मार्य सुधर्मा
१४१ व्यास्याप्राप्ति का उपलब्ध स्वरूप व्याख्याप्राप्ति नामक पंचम अंग के प्रारम्भ में, तथा १५, १७, २३ एवं २६ इन चार शतकों के प्रारम्भ में और इस अंग के सम्पूर्ण होने पर अन्त में - इस प्रकार कुल मिलाकर ६ स्थानों पर मंगलाचरण किया गया है।
इस सूत्र के प्रारम्भ में सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठिनमस्कारमंत्र से और तदनन्तर "णमो बंभीयस्स लिवियस्स" तथा "मो सुयस्स" इन पदों द्वारा मंगलाचरण किया गया है। इसके पश्चात् शतक संख्या १५, १७, २३ और २६ के प्रारम्भ में"णमो सुयदेवयाए भगवईए"- इस पद के द्वारा मंगलाचरण किया गया है ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति के अन्त में दिये गए "इक्कचत्तालीसइमं रासी जुम्मसयं समत्त"- इस समाप्तिसूचक पद से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि इस पंचम अंग के १०१ शतक (अध्ययन) थे उनमें से केवल ४१ शतक ही अवशिष्ट रहे हैं शेष सब विलुप्त हो चुके हैं।
उपरोक्त समाप्तिसूचक पद के पश्चात् यह उल्लेख किया गया है कि भगवती में सब शतकों की (अवान्तरशतकों को मिलाकर) संख्या १३८ और उद्देशकों की संख्या १९२५ है।'
प्रथम शतक से ३२वें शतक तथा ४१वें शतक के कोई अवान्तरशतक नहीं हैं। ३३वें शतक से ३६वें शतक तक के ७.शतक बारह-बारह अवान्तर शतकों के तया ४०वां शतक २१ अवान्तर शतकों का समूह है. अतः इन ८ शतकों की गणना १०५ प्रवान्तर शतकों के रूप में की गई है। इस प्रकार अवान्तर शतक रहित उपरोक्त ३३ शतकों और १०५ अवान्तरशतकात्मक शेष ८ शतकों को मिलाकर व्याख्याप्रज्ञप्ति के शतकों तथा अवान्तर शतकों की सम्मिलित संख्या १३८ बताई गई है वह तो ठीक है परन्तु उपरोक्त संग्रहणी पद में जो उद्देशकों की संख्या १९२५ बताई गई है, उसका आधार खोजने पर भी उपलब्ध नहीं होता। व्याख्या प्रज्ञप्ति के मूल पाठ में इसके शतकों एवं अवान्तरशतकों के उद्देशकों की संख्या दी गई है, केवल ४०वें शतक के २१ अवान्तरशतकों में से अन्तिम १६ से २१ इन ६ प्रवान्तरशतकों के उद्देशकों की संख्या स्पष्ट रूप में नहीं दी गई है परन्तु जिस प्रकार इस शतक के पहले से १५वें अवान्तर शतक तक प्रत्येक की उद्देशक संख्या ११ बताई गई है उसी प्रकार उक्त शेष ६ अवान्तर शतकों में से प्रत्येक की उद्देशक संख्या ११-११ मान ली जाय तो व्याख्याप्रज्ञप्ति के कुल उद्देशकों की संख्या १८८३ होती है । कुछ प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में केवल "उद्देसगारण" इतना ही पाठ देकर संख्या का स्थान रिक्त छोड़ दिया गया है।
इसके पश्चात् एक गाथा द्वारा इस पंचम अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति की पदसंख्या
'सव्याए भगवईए पट्ठतीस सयं सयारणं (१३८) उद्दे सगाण १९२५
(व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक ४१ के पश्चात् )
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