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५. वियाह- पण्णत्त ]
केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा
१३३.
हवें शतक में ३४ उद्देशक हैं, जिनमें असोच्चा केवली, गांगेयभंग और ऋषभ दत्त - देवानन्दा व जमाली के बोध आदि का वर्णन है ।
१० वे शतक में २८ अन्तद्वीप आदि के ३४ उद्देशक हैं ।
११ वें शतक में १२ उद्देशक हैं। इनमें शिवराज ऋषि की प्रव्रज्या, सुदर्शन श्रेष्ठ के कालविषयक प्रश्न का उत्तर, महाबल का वर्णन, श्रालंभिका के इसिभद्रपुत्र श्रावक पुद्गल का वर्णन आदि है । यह परिव्राजक पुद्गल भगवान् महावीर के पास दीक्षित होकर सिद्ध बुद्ध हुए ।
१२ वें शतक में शंस्त्र आदि १० उद्देशक हैं । इसमें सावत्थी के शंख एवं पोखली श्रावक और उनके द्वारा सामूहिक रूप से खा पीकर पाक्षिक पौषधविचार, उपासिका उत्पला का पुष्कली श्रमणोपासक के प्रति शिष्टाचार प्रादि का वर्णन हैं ।
दूसरे उद्देशक में श्रमरगोपासिका जयन्ती द्वारा भगवान् महावीर से तात्विक प्रश्नोत्तर, उदायी राजा द्वारा भगवद्वन्दन आदि का तथा तृतीय उद्देशक में सात पृथ्वियां और चौथे उद्देशक में पुद्गलपरिवर्तन का विचार है। पांचवें उद्देशक में रूपी प्ररूपी, छठे में राहु का, सातवें उद्देशक में लोक, आठवें उद्देशक में नाग के रूप में देव की उत्पत्ति और उसका एकाभवावतारीपन, नौवें में ५ देव, तथा दशवें में ८ प्रकार की आत्मा का वर्णन है ।
१३ वें शतक में १० उद्देशक हैं। प्रथम ६ उद्देशकों में क्रमशः सात पृथ्वियों में नारक जीवों की उत्पत्ति आदि, चार जाति के देव, नारक, पृथ्वी, नारक का आहार, उपपात, राजा उद्दयन द्वारा भगवद्वन्दन, प्रव्रज्या का विचार, पुत्र
भी के हितार्थ केशी का राज्याभिषेक, उदयन की दीक्षा, प्रभीचि कुमार का मनोमालिन्य और कूरिणक के पास गमन, अभीचिकुमार द्वारा श्रावकधर्मग्रहण और अनालोचनापूर्वक मरण के कारण असुर योनि में उत्पन्न होने का वर्णन है । सातवें उद्देशक में भाषा, मन, काय और मरण का विचार है । श्राठवें उद्देशक में कर्मप्रकृति, वें उद्देशक में अनगार की विक्रिया और दसवें में ६ समुद्घात का वर्णन है ।
१४ वे शतक में १० उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में भावितात्मा अनगार की देवावास में उत्पत्ति, नैरयिकों की शीघ्र गति और प्रायुबन्ध, दो में उन्माद आदि, तीन में मध्यगति, विनय प्रार पुद्गल प्रादि, ४ में पुद्गल, पांच में अग्नि, छः में आहार, ७ में गौतम को केवलज्ञान की प्रप्राप्ति से खिन्नता और भगवान् द्वारा उन्हें केवलज्ञान-प्राप्ति होने व अपने समान ही अक्षय पदप्राप्ति का प्राश्वासन आदि, आठवें उद्दे शक में अन्तर, शालवृक्ष की पूजा, अम्बड़ परिव्राजक, जृम्भक देव आदि, नौवें में अनगार और दशवें में केवली के ज्ञान का वर्णन है ।
पन्द्रहवें शतक में कोई उद्दे शक नहीं है। इसमें गोशालक का परिचय, भगवान् महावीर की दीक्षा, भगवान् का प्रथम वर्षावास अस्थिग्राम में, दूसरा
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