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५. वियाह-पण्णत्ति] केवलिकाल : आर्य सुधर्मा
इसी प्रकार 'विबाह पण्णत्ति' शब्द की व्याख्या में लिखा है - "वि-बाधाप्रज्ञप्ति' - अर्थात् जिसमें निर्बाध रूप से अथवा प्रमाण से अबाधित निरूपण किया गया है वह विबाह पण्णत्ति है।
___ इन दोनों प्रकार की व्युत्पत्तियों का इस सूत्र के संस्कृत नाम व्याख्या प्रज्ञप्ति से किसी भी प्रकार का मेल नहीं बैठता। ऐसा प्रतीत होता है कि इस आगम का प्राकृत नाम मूलतः वियाहपण्णत्ति ही रहा होगा किन्तु लिपिकों एवं प्रतिलिपिकारों की असावधानी के कारण कहीं विवाह पण्णत्ति और कहीं विबाह पण्णत्ति भी लिख दिया गया होगा।
___ व्याख्या प्रज्ञप्ति नामक इस पंचम अंग की शैली प्रश्नोत्तर के रूप में है। इन्द्रभूति गौतम ने भगवान महावीर से प्रश्न किये और उन प्रश्नों का भगवान् द्वारा उत्तर दिया गया है। इसी प्रश्नोत्तर के रूप में यह सुविशाल पागम आज विद्यमान है। वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने इन प्रश्नोत्तरों की संख्या ३६००० बताई है। उनमें से अनेक प्रश्न और उनके उत्तर छोटे-छोटे हैं । यथा :
प्रश्न - भगवन् ! ज्ञान का क्या फल है ? उत्तर - विज्ञान। प्रश्न -विज्ञान का क्या फल है ? उत्तर - प्रत्याख्यान । प्रश्न - प्रत्याख्यान का क्या फल है ? उत्तर - संयम।
अनेक प्रश्नोत्तर बहुत बड़े-बड़े हैं। कहीं-कहीं तो एक ही प्रश्न ऐसा है कि उसके उत्तर में पूरा का पूरा एक शतक भर गया है। उदाहरण के रूप में मंखलि गोशालक के सम्बन्ध में जो प्रश्न किया गया है उसके उत्तर में पूरा का पूरा पन्द्रहवां शतक पा गया है।
व्याख्या प्रज्ञप्ति के प्रथन में जो प्रश्नोत्तर की शैली अपनाई गई है वह वस्तुतः अति प्राचीन प्रतीत होती है। भट्ट अकलंक ने अचेलक परम्परा के ग्रन्थ राजवार्तिक में व्याख्या प्रज्ञप्ति की इस शैली का उल्लेख किया है।'
भगवती सूत्र के ४१ मूल शतक हैं। प्रथम शतक में चलन आदि १० उद्देशक हैं। प्रारम्भ में नमस्कार मंत्र और ब्राह्मी लिपि व श्रत के नमस्कार द्वारा मंगलाचरण किया गया है। प्रश्नोत्थान में महावीर और गौतम का संक्षिप्त परिचय है। तत्पश्चात् चलित आदि ६ प्रश्न, २४ दण्डक के आहार, स्थिति एवं श्वासोच्छ्वास काल का विचार, आत्मारम्भ आदि, संवृत-असंवृत, अनगार और असंयत की देवगति का कारण बताया गया है। स्वकृत दुःख का वेदन, उपपात के असंयत प्रादि १३ बोल, कांक्षामोहनीय आदि २४ दण्डकों के प्रावास - स्थिति ' “एवं हि व्याख्याप्रज्ञप्तिदंडकेषु उक्तम् ..... ...." इति गौतमप्रश्ने भगवता उक्तम् । [राजवातिक, प्र० ४, सू० २६, पृ० २४५]
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