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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग
____५. वियाह-पण्पत्ति पांचवां अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति है । इसे भगवती सूत्र के नाम से भी पहिचाना जाता है .
समवायांग सूत्र में व्याख्या प्रज्ञप्ति का निम्नलिखित रूप से परिचय उपलब्ध होता है :
"व्याख्या प्रज्ञप्ति में जीव, अजीव, जीवाजीव, स्वसमय, परसमय, स्व-परसमयोभय, लोक, अलोक और लोकालोक विषयक विस्तृत व्याख्या-चर्चा की गई है। इसकी परिमित वाचनाएं हैं। इसमें संख्यात प्रनयोगद्वार, संख्यात वेढा (छंदविशेष), संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियां, संख्यात संग्रहणियां और संख्यात प्रतिपत्तियां हैं। व्याख्या प्रज्ञप्ति में १ श्रुतस्कन्ध, १०१ अध्ययन, १० हजार उद्देशनकाल, दश हजार समुद्देशनकाल, ३६ हजार प्रश्न एवं उनके उत्तर, २,८८,००० पद और संख्यात अक्षर हैं। व्याख्या प्रज्ञप्ति की वर्णन-परिधि में अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित अस और अनन्त स्थावर पाते हैं। इसमें जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित भावों का वर्णन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदेश दिया गया है।"
___ व्याख्या प्रज्ञप्ति के अध्ययन शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं। वर्तमान में इसके ४१ शतक और उनमें से ८ शतक १०५ अवान्तर शतकात्मक हैं। इस प्रकार शतक और अवान्तर शतक इन दोनों की सम्मिलित संख्या १३८ और उद्देशकों की संख्या १८५३ है। व्याख्या प्रज्ञप्ति अन्य सब अंगों की अपेक्षा अतिविशाल अंग है। वर्तमान में इसका पद परिमारण १५७५१ श्लोकप्रमाण है। व्याख्या प्रज्ञप्ति के - वियाह पण्णत्ति, विवाह पण्णत्ति और विबाह पण्पत्ति-ये तीन नाम उपलब्ध होते हैं। वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने इसके "वियाह पण्णत्ति" नाम को सर्वाधिक महत्व देकर सर्व प्रथम इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है :- "विविविधा, प्रा-अभिविधिना, ख्या-ख्यानानि भगवतो महावीरस्य गौतमादीन् विनेयान् प्रति प्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्याः ताः प्रज्ञाप्यन्ते, भगवता सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानमभि यस्याम् ।"
अर्थात् गौतमादि शिष्यों को उनके प्रश्नों के उत्तर में भगवान् महावीर ने अत्युत्तम विधि से जो विविध विषयों का विवेचन किया, वह सुधर्मा स्वामी द्वारा अपने शिष्य जम्बू को प्ररूपित किया गया विशद विवेचन जिसमें दिया हया हो वह व्याख्या प्रज्ञप्ति है।
यद्यपि इस अंग का संस्कृत में जहां कहीं भी नाम आया है वहां “व्याख्या प्रज्ञप्ति" ही आया है तथापि वृत्तिकार ने इसके "विवाह पत्ति ' और 'विबाह पण्पत्ति' इन दोनों रूपों की भी व्याख्या की है।
"विवाह पगत्ति' - की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है - "विवाह-प्रज्ञप्ति' - अर्थात् जिसमें विविध प्रवाहो की प्रज्ञापना की गई है - वह विवाहपण्णत्ति ।
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