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४. समवायांग ]
केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा
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उत्सर्पिणी काल के चौवीस तीर्थकरों, चक्रवर्तियों, बलदेवों एवं वासुदेवों के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी तथा प्रतिवासुदेवों के नाम दिये गये हैं ।
उपसंहारात्मक अन्तिम सूत्र में समवायांग की एक संक्षिप्त विषयसूची दी गई है ।
यों तो समवायांग की प्रत्येक समवाय, प्रत्येक सूत्र प्रत्येक विषय के जिज्ञासुत्रों एवं शोधार्थियों के लिए ज्ञातव्य महत्वपूर्ण तथ्यों का महान् भंडार है पर समवायांग के अन्तिम भाग को एक प्रकार से "संक्षिप्त जैन पुराण" की संज्ञा दी जा सकती है । वस्तुतः वस्तुविज्ञान, जैन सिद्धान्त और जैन इतिहास की दृष्टि से समवायांग एक आत्यंतिक महत्व का श्रुतांग है ।
समवायांग की समवाय संख्या ६२ में इन्द्रभूति गौतम के ९२ वर्ष की आयु पूर्ण करने पर सिद्ध होने तथा समवाय संख्या १०० में प्रार्य सुधर्मा के १०० वर्ष की आयु पूर्ण कर सिद्ध होने के उल्लेख को तर्क के रूप में प्रस्तुत कर अनेक विद्वान् अपना यह अभिमत प्रकट करते हैं कि समवायांग सूत्र की रचना आर्य सुधर्मा के मोक्षगमन के पश्चात् की गई है । वस्तुस्थिति यह है कि पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों ने इन्द्रभूति गौतम और प्रार्य सुधर्मा जैसे महापुरुषों की आयु के सम्बन्ध में कहीं आगे चल कर किसी प्रकार का भ्रम न हो जाय, इस दृष्टि से उपरोक्त दोनों समवायों में इस प्रकार के उल्लेख अभिवृद्ध किये हैं। केवल इन दो उल्लेखों को देखकर पूरे समवायांग के लिये इस प्रकार की कल्पना कर लेना कि इसकी रचना पश्चाद्वर्ती काल में की गई है वस्तुतः किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता । स्थानांग सूत्र के परिचय में इस प्रकार की स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है ।
इस तथ्य को स्वीकार करने में तो किसी भी निष्पक्ष विचारक को किसी प्रकार की हिचक अथवा झिझक नहीं हो सकती कि समवायांग सूत्र का, इसके प्रणयनकाल से लेकर सम्पूर्ण एकादशांगधरों के काल तक जो वृहद् आकार और विशाल स्वरूप था वह आकार और स्वरूप काल के प्रभाव से सिमटते सिकुड़ते प्राज बहुत छोटा रह गया है । समवायांग, नन्दी प्रादि सूत्रों तथा दिगम्बर ग्रन्थों में दी गई इस अंग की पदसंख्या के साथ वर्तमान में उपलब्ध इसकी पदसंख्या का मिलान करने पर यह भलीभांति प्रकट हो जाता है कि इस अंग का बहुत बड़ा भाग विलुप्त हो चुका है ।
ग्रामों के वृत्तिकार प्राचार्य अभयदेवसूरि ने समवायांग-वृत्ति की प्रशस्ति में बड़े ही मार्मिक शब्दों में शोक प्रकट करते हुये इस तथ्य को स्वीकार किया है कि प्राचीनकाल में समवायांग का १, ४४, ० पदप्रमारण था पर कालप्रभाव से अब उसका बहुत ही छोटा प्रकार अवशिष्ट रह गया है । "
१ यस्य ग्रन्थवरस्य वाक्यजलधेर्लक्षं सहस्राणि च
. चत्वारिंशदहो चतुभिरधिका मानं पदानामभूत् ।
तस्योच्चैश्चुलुका कृति निदधतः कालादि दोषात् तथा,
दुखात् खिलतां गतस्य कुधियः कुर्वन्तु किं माणाः । [समवायागवृत्ति ( अंतस्थ प्रशस्ति ) |
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