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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [३. स्थानांग , राष्ट्रधर्म (६), पाषण्डधर्म (७), श्रुतधर्म (८), चारित्रधर्म (8) और अस्तिकायधर्म-वस्तुधर्म (१०) । दश प्रकार का दान-अनुकम्पा दान (१), संग्रहदान (२), भयदान (३), शोकदान (४), लज्जादान (५), अहंकारदान (६), अधर्मदान (७), धर्मदान (८), भविष्य के लाभ हेतु दान (६) और उपकार के बदले कृतज्ञतादान (१०) । दश प्रकार का सुख- शरीर की निरोगता (१), दीर्घ प्रायु (२), पाढयता (३), शब्द एवं रूप का कामसुख (४), इष्ट गन्ध, इष्ट रस और इष्ट स्पर्श रूप भोगसुख (५), संतोष (६), आवश्यकता की पूर्ति (५), सुसयोग (मानसिक) (८), निष्क्रमण - त्याग-ग्रहण (९) और निराबाध सुख मोक्ष (१०)। इसमें १० प्रकार की लोक स्थिति, क्रोधोत्पत्ति के १० कारण, अभिमान के १० कारण, १० प्रकार की समाधि, आलोचना के १० दोष, १० प्रकार का प्रायश्चित्त, सुकाल-दुकाल के १०-१० लक्षण, १० प्रकार के कल्पवृक्ष, शतायु पुरुष की १० दशा, ज्ञान वृद्धि के १० नक्षत्र और १० आश्चर्यो का उल्लेख किया गया है।
स्थानांग की महत्ता विषय को गम्भीरता एवं नयज्ञान की दृष्टि से स्थानांग सूत्र की बहुत बड़ी महत्ता मानी गई है। इसमें जो कोश-शैली अपनाई गई है वह बड़ी ही उपयोगी और विचारपूर्ण है। बौद्ध परम्परा के अंगुत्तरनिकाय, पुग्गलपण्णत्ती, महाव्युत्पत्ति एवं धर्मसंग्रह में तथा वैदिक परम्परा के महाभारत (वनपर्व, अध्याय १३४) में भी इसी शैली से संग्रह किया गया है। इसके गम्भीर भावों को समझने वाला श्रुतस्थविर माना गया है। जैनागम में बताये गये तीन प्रकार के स्थविरों में से श्रुतस्थविर के लिए "ठाणसमवायधरे” इस प्रकार के विशेषण द्वारा स्थानांग और समवायांग के धारक होने का स्पष्ट उल्लेख किया गया है।
इसके विषयों और विचारों की गम्भीरता एवं दुरूहता के कारण स्वयं टीकाकार अभयदेवसूरी ने इसकी व्याख्या करते समय अपनी कठिनाई का उल्लेख करते हुए लिखा है - "प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या के समय सिद्धान्तज्ञान की सही परम्परा का अभाव है और आवश्यक तर्कशक्ति का भी योग नहीं है । स्व तथा पर शास्त्रों का अवलोकन भी यथावत् नहीं हो सका और न दृष्ट एवं श्रुत विषयों का पूर्ण स्मरण ही रहा है। इसके उपरांत वाचनामों की अनेकता, प्रादर्श पुस्तकों का प्रशुद्ध-लेखन, सूत्र की अतिशय गम्भीरता और स्थान-स्थान पर मतभेदों के कारण इसकी समीचीन रूप से व्याख्या करने में स्खलनाएं संभव हैं। विवेकशील विचारक इससे केवल शास्त्रसम्मत अर्थ को ही ग्रहण करें।''
सत्संप्रदायहीनत्वात्, सदूहस्य वियोगतः । • सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥१॥ वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धतः । सूत्राणामतिगाम्भीर्यात, मतभेदाच्च कुत्रचित् ।।२।। भूणानि संभवन्तीह केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धान्तानुगमो योऽर्थः सो स्मात् ग्राह्यो न चेतरः ।। ३।। [स्थानांग-वृत्ति प्रशस्ति]
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