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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [४. समवायांग स्थिति वाले नारक, देव, आदि का, असंख्य वर्ष की प्रायु वाले संज्ञी तियंच पंचेन्द्रियों एवं मनुष्यों प्रादि का विवरण दिया गया है।
___ समवाय संख्या २ में अर्थदण्ड एवं अनर्थ दण्ड-दो प्रकार के दण्ड, रागबन्ध एवं द्वेषबन्ध-दो प्रकार के बन्ध इस रूप में दो संख्या वाली वस्तुओं का उल्लेख करते हुये अन्त में कुछ भवसिद्धिकों की दो भव से मुक्ति होना बताया गया है ।
तीसरी समवाय में- मनदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड-ये तीन दण्ड, मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति-तीन प्रकार की गुप्ति, तीन प्रकार के शल्य, तीन प्रकार के गौरव और तीन प्रकार की विराधना का उल्लेख करने के पश्चात् उन नक्षत्रों के नाम दिये गये हैं जिनमें तीन-तीन तारे हैं। इसके अनन्तर प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय नरक के नारकीयों, असुरकुमारों, भोगभूमि के संशी पंचेन्द्रियों, सौधर्म, ईशान देवलोकों के कुछ देवों एवं प्राभंकर आदि १४ विमानों के देवों की स्थिति का वर्णन किया गया है। इस समवाय के अन्त में बताया गया है कि उपरोक्त १४ विमानों में उत्पन्न होने वाले उन देवों में से कुछ देव तीन भव करने के पश्चात् शाश्वत मोक्षसुख को प्राप्त करेंगे।
चौथी समवाय में कषाय, ध्यान, विकथा, संज्ञा, बन्ध के चार-चार भेद, योजन का परिमारण और चार तारों वाले नक्षत्रों का उल्लेख करने के पश्चात् चार पल्योपम और चार सागरोपम की आयु वाले नारक, देव आदि का नामोल्लेख किया गया है। ... पांचवीं समवाय में क्रिया, महाव्रत, कामगुण, प्रास्रवद्वार, संवरद्वार, निर्जरास्थान, समिति और अस्तिकाय - इनमें से प्रत्येक के पांच-पांच भेदों का निरूपण किया गया है । तदनन्तर पांच तारों वाले नक्षत्र, पांच पल्योपम, पांच सागरोपम की आयु वाले नारक, देव आदि का उल्लेख किया गया है।
___ छठे समवाय में लेश्या, जीवनिकाय, बाह्य तप, आभ्यंतर तप, छामस्थिक समुद्घात एवं अर्थावग्रह - इन सबके छः छः प्रकारों का नामोल्लेख करने के पश्चात् कृत्तिका तथा प्राश्लेषा नक्षत्र को छ:-छः तारों वाला बताया गया है। इस समवाय में यह भी बयाया गया है कि रत्नप्रभा पृथिवी में कतिपय नारकीयों की स्थिति छः पल्योपम, तृतीय पृथ्वी में कतिपय नारकीयों की स्थिति छः सागरोपम, असुर कुमार देवों में से कतिपय देवों की स्थिति ६ पल्योपम, सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों की स्थिति ६ पल्योपम तथा सनस्कुमार एवं माहेंद्रकल्प के कितने ही देवों की स्थिति छः सागरोपम होती है।
इस समवाय के अन्त में बताया गया है कि स्वयंभू, स्वयंभूषण, घोष, सुघोष आदि बीस विमानों के देवों की उत्कृष्ट स्थिति छः सागरोपम की होती है । इन विमानों के देव ६ अर्द्ध मासों के अन्त में बाह्य तथा प्राभ्यंतर उच्छ्वास ग्रहण करते हैं। उन्हें छः हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर प्रहार की इच्छा उत्पन्न होती है उन देवों में कतिपय देव ६ भवों में सिद्धि प्राप्त करने वाले हैं।
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