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पाचारांग ]
केवलिकाल : मार्य सुधर्मा के विच्छिन्न हो जाने के पश्चात् भी परंपरागत धारणा के अनुसार पूर्वगत से उद्धृत होने की स्थिति में भी निशीथ को पानासंग की तूला ही माना जाता रहा । जिस प्रकार गंगा के जल को यमुना जल और यमुना के जल को गंगाजल नहीं कहा जा सकता उसी प्रकार आचारांग और निशीथ को एक नहीं माना जा सकता। क्योंकि दोनों का परस्पर प्रगाढ़ सम्बन्ध होने के उपरान्त भी प्राचारांग श्रुत-गंगा की एकादशांगी रूप एक धारा का जल है तो निशीथ चतुर्दश पूर्व रूपी दूसरो धारा का जल । स्वयं नियुक्तिकार ने इस तथ्य को स्वीकार करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि प्राचारप्रकल्प (निशीथ) प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु के आचार नामक बीसवें प्राभूत से निव्यूंढ किया गया है।'
उपरिलिखित तथ्यों से यह निस्संदिग्धरूपेण सिद्ध हो जाता है कि प्राचारांग की अभिन्न अंग के रूप में कोई चूला न तो पूर्वकाल में कभी थी और न वर्तमान में ही है। इसका प्रबल प्रमाण है समकायांग और नन्दी सूत्र में उल्लिखित द्वादाशांगी का परिचय जिसमें कि आचारांग की किसी चूला के अस्तित्व का संकेत तक नहीं किया गया है।
प्राचारांग की अभिन्न अंग के रूप में चूलिका का अस्तित्व न होते हुए भी अपवाद की स्थिति में साध्वाचार में लगे अतिचारों के विशुद्धिकरण की दृष्टि से पूर्वकाल में प्रचारप्राभूत को और पश्चाद्वर्तीकाल में उसी के सारभूत स्वरूप निशीथ को परमावश्यक समझ कर आचारांग की वस्तुतः चूला न होते हुए भी चूला माना जाता रहा। यही कारण है कि. समवायांग सूत्र की समवाय संख्या १८, २५ ओर ८५ में "प्रायारस्स भगवो सचूलियागस्स" - इस पद के द्वारा एक चूलिका की सत्ता का संकेत किया गया। यहां संकेत शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है कि मूल आगम में उस चूलिका के नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है। समवाय संख्या ५७ में जो-"प्रायारचूलावज्जाणं" इस पद के प्रयोग से सूत्रकृतांग के २३, स्थानांग के १० और प्राचारांग के २५ अध्ययनों में से चूलिकात्मक एक अध्ययन को छोड़ कर शेष २४ को मिला कर प्रथम के तीन अंगों के ५७ अध्ययन बताये गये हैं। इस सूत्र में प्राचारांग का २५ वां अध्ययन चलात्मक बताया गया है पर समवायांगसूत्र को समवाय संख्या २५ में प्राचारांग के प्रथम अध्ययन "शस्त्रपरिज्ञा से लेकर विमुक्ति नामक २५वें अध्ययन तक के २५ नामों का उल्लेख करने के पश्चात् "निसीहं परणवीसइम" इस प्रकार का पद देकर निशीथ को आचारांग का २५वां अध्ययन बताया गया है। २५वीं समवाय में जो प्राचारांग के २५ अध्ययनों के नाम गिनाये गये हैं उन्हीं नामों के २५ अध्ययन वर्तमान काल में प्राचारांग में विद्यमान हैं। ऐसी स्थिति में जो ५७वें समवाय ' प्रायारपकप्पोउ, पच्चखाणस्स तइयवत्यूप्रो।
पायारणामधेज्जा, विसइमा पाहुडच्छेया ।। [प्राचारांग-नियुक्ति, श्रु० २] २ तिण्हं गरिणपिडगाणं प्रायारचूलियावज्जाणं सत्तावन्नं अज्झयणा पण्णत्ता तंजहा प्रायारे सूयगड़े ठाणे।
[समवायांग, समवाय ५७]
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