________________
११२
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [२. सूत्रकृतांग . दशवे - "समाधि' अध्ययन में हिसानिषेध, संयमपालन और समत्व का उपदेश दिया गया है । धार्मिक व्यक्ति को पाप से सदा उसी प्रकार डरते रहने का उपदेश दिया गया है जिस प्रकार कि मृग सिंह से डरता रहता है।
ग्यारहवें "मार्ग" अध्ययन में मोक्ष-मार्ग पर विचार किया गया है ।
बारहवें “समवसरण' अध्ययन में प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी, और क्रियावादी ‘ऐसे ४ समवसरणों का वर्णन है । इसमें मुक्ति, एकान्तक्रियावाद से नहीं किन्तु सर्वज्ञसम्भत ज्ञान-क्रिया से बताई गई है।
तेरहवें अध्ययन में यथातथ्य स्थिति का वर्णन करते हुए बताया गया है कि क्रोध के दुष्परिणाम समझकर सुशिष्य को पापभीरू, लज्जावान्, श्रद्धालु, अमायी और आज्ञापालक होना चाहिये। इसमें यह भी बताया गया है कि अभिमानी का तप निरर्थक होता है और ज्ञान एवं लाभ का मद करने वाला अज्ञानी है अतः मद नहीं करने वाला ही पण्डित एवं मोक्षगामी कहा गया है।
चौदहवें - "ग्रंथ अध्ययन" में जीवननिर्माण की विविध शिक्षाओं के रूप में बताया गया है कि साधक को प्रथम गुरुकुलवास-गुरुजनों का सहवास आवश्यक है। अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, प्राज्ञापालन और अप्रमाद साधना के प्रमुख अंग हैं। इसमें आगे कहा गया है कि साधक को हास्य, अप्रिय सत्य, प्रतिष्ठा की चाह और कषाय से बचते रहना आवश्यक है।
पन्द्रहवें - "यादान अध्ययन" में स्त्री लिंग-त्याग और निष्काम-साधना का उपदेश देते हुए रत्नत्रय की आराधना से भवभ्रमण मिटना बतलाया गया है।
___ सोलहवें - "गाथा अध्ययन' में साधु के "माहन", "श्रमरण", "भिक्खु" और "निर्ग्रन्थ' ये चार नाम देकर इनकी व्याख्या की गई है।
दूसरे श्रुतस्कन्ध में ७ अध्ययन में । प्रथम "पुण्डरीक" अध्ययन में बताया गया है कि संसार सरोवर में साधु रूक्ष वत्ति से रहता हा राजा आदि अधिकारी को निस्पृह भाव से धर्मोपदेश करते.हुए स्व-पर कल्याण का अधिकारी होता है। अन्त में श्रमण के सोलह पर्यायवाची शब्द बताये गये हैं।
दूसरे-"क्रियास्थान अध्याय" में १३ क्रियाओं का वर्णन किया गया है। क्रिया के सन्दर्भ में धर्मस्थान को उपशान्त और अधर्म को अनुपशान्त स्थान कहा गया है । संक्षेप में संसारी जीवों के तीन भाग किये गये हैं। इनमें निरारम्भी मुनिजीवन को धर्मपक्ष कह कर उपादेय और महा आरम्भी गृहस्थों के अधर्मपक्ष को और मिश्र पक्ष लो हेय बतलाया गया है । किन्तु धार्मिक गृहस्थों का धर्माधर्ममिश्रित जीवन उपादेय कहा गया है ।
तीसरे ‘पाहार परिज्ञा अध्ययन" में जीवों के आहार का विचार किया गया है । वनस्पति के ग्राहार पर विस्तृत विचार है । वनस्पतियां पृथ्वीयौनिक, वृक्षयौनिक रूप से मुख्यतः दो प्रकार की बताई गई हैं । वृक्षों की उत्पत्ति का कारण आहारक शरीर और उनके विभिन्न १० अंगों में भिन्न-भिन्न जीव बतलाये गये
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org