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३. स्थानांग]
केवलिकाल : आर्य सुधर्मा तीर्थंकर महापद्म का चरित्रचित्रण किया गया है। दूसरी विचारणीय बात यह है कि श्रुति-परम्परा से चला आने वाला आगमपाठ स्कंदिलाचार्य और देवदि गणी द्वारा आगमवाचना में स्थिर किया गया। संभव है उस स्थिरीकरण के समय मूल भावों को यथावत् सुरक्षित रखते हुए भी उसमें प्रसंगोचित समझ कर कुछ आवश्यक पाठ बढ़ाया गया हो। यह भी संभव है कि भविष्यकाल की घटनाओं के रूप में जिन घटनाओं का आगम में उल्लेख किया गया था, आगमवाचना के समय तक वे घटनाएं घटित हो चुकने के कारण भावी घटनाएं न रह कर भूत . की घटनाएं बन चुकी थीं अतः उन्हें यथावत् भविष्य की घटनाओं के रूप में ही उल्लिखित किये जाने की अवस्था में कहीं भ्रांति न हो जाय इस दृष्टि से आगमवाचना के समय सर्वसम्मति से संघ द्वारा भविष्य काल की क्रिया के स्थान पर भूतकाल की क्रिया का प्रयोग कर दिया गया हो। शासनहित में सामयिक संवर्द्धन करने का गीतार्थ प्राचार्यों को पूर्ण अधिकार था।
ऐसी स्थिति में यह शंका करना कि स्थानांग मौलिक नहीं है- यह सर्वथा अदूरदर्शितापूर्ण एवं अनुचित है।
स्थानांग के १० स्थानों में क्रमशः जो विवरण दिया गया है उसको संक्षेप में यहां प्रस्तुत किया जा रहा है :
(१) प्रथम स्थान में आत्मा, अनात्मा, धर्म, अधर्म, बंध और मोक्ष आदि को सामान्य दृष्टि से एक बतलाया गया है। गुण-धर्म एवं स्वभाव की समानता के कारण अनेक भिन्न-भिन्न पदार्थों को एक बताया गया है। प्रार्दा चित्रा और स्वाति का एक-एक तारा बताकर प्रकरण पूरा किया गया है ।
(२) दूसरे प्रकरण में वोध की सुलभता के लिये जीवादि पदार्थों के दोदो प्रकार किये हैं। जैसे आत्मा के दो प्रकार-सिद्ध और संसारी। धर्म दो प्रकार का आगार धर्म, अनागार धर्म, श्रुतधर्म, चारित्रधर्म । बंध के दो प्रकार - रागबन्ध एवं द्वेषबंध । वीतराग के दो प्रकार - उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय । काल के दो प्रकार-अवसर्पिणी काल एवं उत्सर्पिणी काल । राशि दो - जीवराशि तथा अजोव राशि । दो प्रकार के मरण - बालमरण और पण्डितमरण ।
(३) तीसरे विभाग में कुछ और स्थूल दृष्टि से विचार किया गया है । जैसे-दृष्टि ३-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्र दृष्टि । तीन वेद - स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद । पक्ष तीन - धर्म पक्ष, अधर्म पक्ष और धर्माधर्म पक्ष । लोक तीन-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक । आहार के तीन प्रकार - सचित्तपाहार अचित्त आहार और मिश्र आहार । तीन प्रकार का परिग्रह - सचित्त परिग्रह, दास-दासी-पशु आदि, अचित्त परिग्रह - सोना, चांदी आदि, मिश्र परिग्रह - आभूषणयुक्त दासदासी। अशुभ दीर्घायु के तीन कारण - प्राणघात करना, मृषा बोलना एवं तथारूप श्रमण की हीलना, निन्दा तथा तिरस्कार करना एवं अमनोज्ञ अशनादि से प्रतिलाभ देना इत्यादि ।
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