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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग . [ ३. स्थानांग इस अनुक्रम से अन्तिम प्रकरण में दश-दश वस्तुओं का वर्णन किया गया है। जिस संख्या की वस्तु का निरूपण जिस प्रकरण में किया गया है, उसी संख्या के आधार पर इसके प्रकरणों का नाम प्रथम स्थान, द्वितीय स्थान, तृतीय स्थान और इसी अनुक्रम से अन्तिम प्रकरण का नाम दशम स्थान रखा गया है ।
जिस प्रकरण में तत्संख्याविषयक निरूपणीय सामग्री का प्राचुर्य हो गया, वहां उस प्रकरण के उपविभाग कर दिये गये हैं। दूसरे, तीसरे तथा चौथे- इन तीनों प्रकरणों के, प्रत्येक के चार-चार उपविभाग और पांचवें प्रकरण के ३ उपविभाग हैं। प्रथम तथा छठे से दशवें तक इन ६ स्थानों में पृथक कोई उपविभाग नहीं है। १५ उद्देशकों और ६ अध्ययनों के, प्रत्येक के एक-एक उद्देशनकाल के हिसाब से स्थानांग सूत्र के कुल मिला कर २१ उद्देशनकाल और २१ ही समुद्देशनकाल होते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर के निर्वाण-पश्चात् दूसरी से छठी शताब्दी तक के अवान्तर काल की कुछ घटनामों का उल्लेख किया गया है। उसे देखकर कुछ इतिहास के विद्वानों को इस प्रकार की भ्रांति होती है कि स्थानांग सूत्र की रचना गणधरों द्वारा नहीं अपितु किसी अर्वाचोन प्राचार्य द्वारा की गई है । अपने इस अभिमत की पुष्टि में वे यह तर्क प्रस्तुत करते हैं-"स्थानांगसूत्र के नौवें स्थान में गोदास से कोडिन्न तक के ६ गणों का उल्लेख है पर वस्तुतः वे गण भगवान् महावीर के निर्वाण से लगभग २०० वर्ष पश्चात् अस्तित्व में आये । इसी प्रकार ७ वें स्थान में जो ७ निन्हवों का उल्लेख है उनमें रोहगुप्त नामक निन्हव वीर निर्वाण की छठी शताब्दी के अन्त में हुआ है। भगवान् महावीर के निर्वाण से लगभग २०० और ६०० वर्षों पश्चात् घटित हई घटनाओं का स्थानांग में उल्लेख होना यह प्रमाणित करता है कि इसकी रचना भगवान् महावीर की विद्यमानता में गरगधरों द्वारा नहीं अपितु भगवान के निर्वाण से ६०० वर्ष पश्चात् किन्हीं प्राचार्यों द्वारा की गई है।"
किन्तु इस प्रकार केवल इन उल्लेखों के आधार पर यह मान्यता बना लेना कि स्थानांग सूत्र की रचना ही किसी परवर्ती प्राचार्य ने की है, किसी भी दशा में न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। द्वादशांगी के विलुप्त हो जाने की मान्यता अभिव्यक्त करने वाली दिगम्बर परम्परा भी इस तथ्य को स्वीकार करती है कि द्वादशांगी का अर्थतः उपदेश भगवान् महावीर ने दिया और गणधरों ने उसी को शब्द रूप में ग्रथित किया। ऐसी स्थिति में किसी पश्चाद्वर्ती घटना का स्थानांग में उल्लेख देखकर बिना विचारे ही यह कह देना कि यह गणधर की कृति नही किसी पश्चाद्वर्ती प्राचार्य की कृति है - कदापि न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता। इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में दो बातें विशेष विचारणीय हैं । प्रथम तो यह कि अतिशयज्ञानी सूत्रकार ने कतिपय भावी घटनाओं की पूर्वसूचना बहत पहले ही दे दी हो तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं जैसे कि स्थानांग के नवम स्थान में आगामी उत्सर्पिणी काल के भावी
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