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जैन धर्म का मोलिक इतिहास-द्वितीय भाग २. मूत्रकृतांग "स्वामिन ! मेरे कुल का सर्वनाश मत करिये। मेरे पास जितनी सम्पत्ति है वह .सब लेकर भी मेरे पुत्रों को जीवनदान दे दीजिये।" ।
राजा ने कुपित हो कहा- 'पापिष्ट! राजा की प्राज्ञा का उल्लंघन राजा के प्राणहरण तुल्य है। तेरे पुत्रों ने मेरी प्राज्ञा की अवहेलना की है अतः मैं उन्हें किसी भी तरह क्षमा नहीं कर सकता।"
धष्ठी ने पूनः करुण स्वर में प्रार्थना की- 'स्वामिन् ! यदि प्राणदण्ड ही देना है तो मेरे ६ पुत्रों में से किसी एक को प्रारणदण्ड देकर शेष को दण्डमुक्त कर दीजिये।"
- राजा ने श्रेष्ठी की इस प्रार्थना को भी स्वीकार नहीं किया। तत्पश्चात् श्रेष्ठी ने क्रमशः चार, तीन और दो पूत्रों को छोड़ने की प्रार्थनाएं कीं पर राजा ने उसकी एक भी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। अन्त में श्रेष्ठी ने घबड़ाकर प्रतिष्ठित नागरिकों के माध्यम से अत्यन्त विनयपूर्वक प्रार्थना की -- “स्वामिन् ! आप प्रजा के पिता हैं अतः हमारी रक्षा करना आपका कर्तव्य है। हम आपकी शरण में हैं, चाहे तारो या मारो।" इस प्रकार कहते हुए वह श्रेष्ठी राजा के पैरों पर गिर पड़ा।
श्रेष्ठी की साननय प्रार्थना से द्रवित हो राजा ने भी उसके ६ पुत्रों में से एक ज्येष्ठ पुत्र को मुक्त कर दिया। सर्वनाश की अपेक्षा एक ज्येष्ठ पुत्र बचा इसी से संतोष मानकर श्रेष्ठी अपने घर गया। .
" जिस प्रकार राजा द्वारा श्रेष्ठी के सभी पुत्रों को मृत्युदण्ड देने का आग्रह करने पर श्रेष्ठी ने अपने एक पुत्र के दण्डमुक्त होने में भी बड़ा संतोष माना। यहां पर पांच पुत्रों की मृत्यु में श्रेष्ठी को दोषी नहीं माना जा सकता क्योंकि श्रेष्ठी के मन में उनकी मृत्यु के लिए किंचित्मात्र भी अनुमति नहीं अपितु विवशता थी। उसी प्रकार साधु द्वारा षटकायिक जीवों की हिंसा से बचाने का उपदेश होने पर भी गहस्थ राजा के समान केवल बसकाय की हिंसा का ही त्याग करता है, ५ स्थावरकाय के जीवों की हिंसा नहीं छोड़ता, इसमें व्रतदाता मुनि दोष का भागी नहीं माना जा सकता।
. सूत्र कृतांग वस्तुतः प्रत्येक साधक के लिये दार्शनिक ज्ञान की प्राप्ति में बड़ा पथप्रदर्शक है। मुनियों के लिये इसका अध्ययन, चिन्तन, मनन और . निदिध्यासन परमावश्यक है। इसमें उच्च प्राध्यात्मिक सिद्धान्तों को जीवन में ढालने, सभी प्रकार के अन्य मतों का. परित्याग करने, विनय को प्रधान भूषण मानकर आदर्श श्रमणाचार का पालन करने आदि की बड़ी प्रभावपूर्ण ढंग से प्रेरणाएं दी गई हैं। दार्शनिक दृष्टि से यह आगम उस समय की चिन्तन प्रणाली का बड़ा ही मनोहारी दिग्दर्शन प्रस्तुत करता है ।
सूत्रकृतांग में बताया गया है कि साधना के क्षेत्र में आने वाले भीषण से भीषण उपसर्गों से विचलित, परिचितों के स्नेहसिक्त मधुर संलापों से पतित न
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