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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[ आचारांग
में २५ वें अध्ययन को चूलिकास्वरूप और २५वीं समवाय में विमुक्ति अध्ययन को प्राचारांग का पच्चीसवां अध्ययन बताने के पश्चात् जो निशीथ को भी २५वां अध्ययन बताया गया है, इसका वास्तविक अर्थ क्या है, इसमें किसी लिपिकार की भूल है अथवा संकलनाकाल में इन दोनों सूत्रों के पाठ में किसी प्रकार की भूल हुई है यह तो अतिशय ज्ञानी ही बता सकते हैं पर इस प्रकार के पाठों से यह अवश्य प्रकट होता है कि नवम पूर्व की तृतीय वस्तु के प्रचार नामक बीसवें प्राभृत को आचारांग का अंग न होते हुए भी परमावश्यक होने के कारण जो आचारांग की चूला माना गया है उसके प्रस्तुतीकरण ( Interpretation) को लेकर मान्यता-भेद उत्पन्न हो गया था ।
अब हमें निष्पक्ष दृष्टि से यह देखना है कि निशीथ वस्तुतः श्राचारांग का ही अंग है अथवा उससे पूर्णतः पृथक् । इस सम्बन्ध में आगम और आगम से सम्बद्ध इतर साहित्य के पर्यालोचन से यह प्रकट होता है कि निशीथ आचारप्रकल्प अथवा प्रकल्प का ही दूसरा नाम है । ये तीनों शब्द समानार्थक और एक दूसरे के पर्यायवाची हैं ।
. स्थानांग और समवायांग ? में श्राचार प्रकल्प के क्रमशः ५ और २८ भेदों का निरूपण करते हुए जो नाम दिये हैं उनसे यह प्रकट होता है कि प्रचारप्रकल्प और श्राचारांग इन दोनों की विषयवस्तु विभिन्न होने के कारण ये दोनों अपनाअपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं । प्रश्नव्याकरण सूत्र में भी आचारप्रकल्प २८ प्रकार का बताया गया है। आवश्यक वृहद्वृत्ति में २८ प्रकार का आचार प्रकल्प बताते हुए २५ नाम तो वही गिनाये गये हैं जो कि आचारांग के २५ अध्ययनों के हैं । इन पच्चीस के साथ निशीथ के तीन भेद जोड़कर २८ प्रकार के प्रचारप्रकल्प की संख्या पूरी की गई है । इससे भी यही सिद्ध होता है कि प्रचारप्रकल्प आचारांग का अभिन्न अंग नहीं अपितु इससे भिन्न है ।
१ पचविहे प्रायारकप्पे पं० तं मासिए उग्धाइए मासिए प्रणुग्धाइए, चउमासिए उग्धाइए, मासिए अणुधाइए, प्रारोवरणा ॥ [ स्थानांग, ठाणा ५ ]
२ अट्ठावीसविहे प्रायारकप्पे पं० तं० मासिया श्रारोवरणा (१) अक सिरा आरोवणा ( २८ ) [समवायांग, सम० २८ ]
[ प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार ५ ]
3 अट्ठावीसा प्रायारकप्पा |
४ सत्यपरिन्दा लोगविजओ सिप्रोसणिज्जं संमत्तं । आवंति घुम विमोहो, उवहारणसुत्रं महपरिन्ना ॥ ५१ पिडेसर सिज्जिरिज्जा, भासज्जाया य वत्थपाएसा । उग्गहपडिमा सत्तिक्कसत्तयं भावरण विमुत्ति ।। ५२ उग्धायमणुग्धायं आरोवरण तिविमो निसीहं तु । इति अट्ठावीसविहो, आयरपकप्पनामोयं ॥ ५३
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[ आवश्यक वृहद्वृत्ति, प्र० ३ ]
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