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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[ श्राचारांग
आचार्य मलयगिरि' ने उपरोक्त मान्यता के समर्थन में अपना अभिमत व्यक्त करने के पश्चात् इस प्रकार की मान्यता का उल्लेख भी किया है कि आचारांग स्थापना की दृष्टि से पहला अङ्ग और रचनाक्रम की दृष्टि से १२ वां अङ्ग माना गया है ।
मूल आगम समवायांग में तथा नन्दी सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है - "से गं श्रङ्गट्ठाए पढमे अङ्गे”। इस सूत्र की संस्कृत छाया इस प्रकार होगी - तन्ननु अङ्गार्थ प्रथममङ्गम् ।" इस सूत्र में प्रयुक्त "णं" शब्द को केवल वाक्यालंकार के लिए प्रयुक्त न मानकर निश्चयार्थक माना जाय तो इस सूत्र का अर्थ होता है - "वह आचारांग प्रक्रम की दृष्टि से निश्चितरूपेण प्रथम प्रङ्ग है ।"
मूल आगम में इस प्रकार के निश्चयात्मक स्पष्ट उल्लेख के पश्चात् इस प्रकार के प्रश्न के लिए किंचित् मात्र भी अवकाश नहीं रहना चाहिये था कि आचारांग स्थापना की दृष्टि से प्रथम अङ्ग है अथवा रचना की दृष्टि से । पर यह प्रश्न पूर्वाचार्यों के समक्ष उठा और आज तक इसका कोई सर्वसम्मत समाधान नहीं हो पाया है ।
कि
ऐसा प्रतीत होता है कि एक छोटी सी भ्रांति के कारण ही संभवत: इस प्रश्न का प्रादुर्भाव हुआ है । यद्यपि आगम में तो स्पष्ट उल्लेख है प्रङ्गों के क्रम में आचारांग का प्रथम स्थान है परन्तु आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने “त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र" २ में इस प्रकार का उल्लेख किया है कि प्रभु से त्रिपदी का ज्ञान प्राप्त होने पर गौतमादि गणधरों ने सर्वप्रथम चौदह पूर्वो की रचना की और तदनन्तर द्वादशांगी की । गरणधरों द्वारा द्वादशांगी की रचना से पहले ही चतुर्दश पूर्वो की रचना की गई, इस कारण चतुर्दश पूर्वो की रचना को पूर्व के नाम से अभिहित किया गया है ।
इस प्रकार की स्थिति में गहराई से विचार करने से पहले यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था कि जब पूर्वों की रचना प्रङ्गों से पहले कर ली गई तो द्वादशांगी के क्रम में आचारांग का प्रथम स्थान किस प्रकार हो सकता है ? इस प्रश्न का सीधा सा उत्तर यह है कि पूर्वो की प्रथम रचना से आचारांग का द्वादशांगी • के क्रम में प्रथम स्थान मानने में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती ।
१
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इह तीर्थंकरस्तीर्थप्रवर्त्तनिकाले गणधरान् सकलश्रुतार्थावगाहन समर्थानधिकृत्य पूर्व पूर्वगतं 'सूत्रार्थं भाषते, ततस्तानि पूर्वाण्युच्यन्ते, गणधराः पुनः सूत्ररचनां विदधतः प्राचारादिक्रमेण विदति स्थापयन्ति वा (च), प्रन्ये तु व्याचक्षते - पूर्वं पूर्वगतसूत्रार्थमर्हन् भाषते, गणधरा अपि पूर्वं पूर्वगतसूत्रं विरचयन्ति पश्चादाचारादिम्, भ्रत्र चोदक ग्राह नन्विदं पूर्वापरविरुद्ध यस्मादादी निर्युक्तायुक्त "सब्वेसि श्रायारो पढ़मो" इत्यादि, सत्यमुक्त, किन्तु तत्स्थापना - मधिकृत्योक्तम्, अक्षररचनामधिकृत्य पुनः पूर्व पूर्वाणि कृतानि ततो न कश्चित् पूर्वापरविरोधः । " [ नन्दी - मलयगिरिकृता वृत्ति, पृ० ४८१ ( धनपतिसिंह ) ] २ सूत्रितानि गणधर रंगेभ्यः पूर्वमेव यत् ।
, पूर्वारणीत्यभिधीयते तेनैतानि चतुर्दश ।। १७२ । । [ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०,
सर्ग ५ ]
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