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प्राचारांग] केलिकाल : मायं सुधर्मा
१०७ नियुक्तिकार, टीकाकार और चूर्णिकार ने भी आचारांग का द्वादशांगी के क्रम में सर्वप्रथम स्थान माना है। नियुक्तिकार के उल्लेखानसार तीर्थंकर भगवान् सर्वप्रथम आचारांग का और तदनन्तर शेष अंगों का प्रवर्तन-प्रचलन करते हैं।' गणधर भी उसी क्रम से अंगों की रचना करते हैं। प्राचारांग को अंगों के क्रम में प्रथम स्थान देने का कारण बताते हुए नियुक्तिकार ने लिखा है कि प्राचारांग में मोक्ष के उपायों का प्रतिपादन किया गया है और यही प्रवचन का सार है, इसलिए इसको द्वादशांगी के क्रम में प्रथम स्थान दिया गया है ।२ . - प्राचारांग के चूर्णिकार और टीकाकार दोनों ने ही आगम और नियुक्ति के उपरोक्त उल्लेखों का समर्थन करते हुये निम्नलिखित रूप में प्राचारांग की सर्वाधिक महत्ता प्रकट की है :
"अनन्त अतीत में जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, उन सब ने सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश दिया, वर्तमान काल के तीर्थकर जो महाविदेह क्षेत्र में विराजमान हैं, वे भी सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश देते हैं और अनागत अनन्त काल में जितने भी तीर्थकर होने वाले हैं वे भी सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश देंगे, तदनन्तर शेष ११ अंगों का। गणधर भी इसी परिपाटी का अनुसरण करते हुए इसी अनुक्रम से द्वादशांगी को ग्रथित करते हैं ।"3
समवायांग की टीका में अभयदेव सूरी ने और नन्दी सूत्र की वृत्ति में ' सम्बेसिमायारो तित्थस्य पवत्तणे पढ़मयाए ।
सेसाई अंगाई, एक्कारस प्रणुपुवीए ।।८।। [प्राचारांग नियुक्ति] २ मायारो अंगाणं, पढ़ममंगं दुवालसण्हं पि।
इत्य य मोक्खो वामो, एस य सारो पवयणस्स ।।६।। [वही] ३ (क) सव्व तित्यगरा वि य प्रायारस्स प्रत्यं पढ़मं प्राइक्खंति ततो सेसगाणं एक्कारसण्ह मंगाणं ताए चेव परिवारीए गणहरा वि सुत्तं गुपंति । (प्राचारांग चूणि, पृ. ३) (स) कदा पुनमंगवताचार: प्रणीत; इत्यत प्राह सन्वेसिमित्यादि-सर्वेषां तीर्थकराणां तीर्थप्रवर्तनादावाचारार्थः प्रथमतयाभूद्, भवति, भविष्यति च ततः शेषांगार्थ इति गणधरा मप्यनयवानुपूर्ध्या सूत्रतया प्रघ्नंतीति ।
[पाचारांग शीलांकाचार्यकृत टीका, पृ० ६ राय धनपतिसिंह] प्रय कि तत् पूर्वगतं ? उच्यते, यस्मात्तीर्थकरः तीर्थप्रवर्तनकाले गणघराणां सर्वसूत्राधारत्वेन पूर्व पूर्वगतं सूत्राथं भाषते तस्मात्पूर्वाणोति भरिणतानि, गणधराः पुनः सूत्ररचनां विदधाना भाचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च, मतान्तरेण तु पूर्वगतसूत्रार्थः पूर्वमहता भाषितो गणधररपि पूर्वगतश्रुतमेव पूर्व रचितं पश्चादाचारादि, नन्वेवं यदाचारनियुक्त यां सझेसि पायारो पढ़मो इत्यादि, तत्कयम् ? उच्यते, तत्र स्थापनामाश्रित्य तथोक्तमिह त्वक्षररचनां प्रतीत्य भणितं पूर्व पूर्वाणि कृतानीति ।"
[समवायांग टीका (मभयदेवसूरि विरचिता) पत्र १६६१(१)]
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