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ग्राचारांग ]
केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा
१०५.
श्रुतस्कन्ध की रचना की होती तो इसके साथ भी इसके रचनाकार का नाम अवश्य जुड़ा हुआ होता और प्रश्नव्याकरण- सूत्र, स्थानांग, समवायांग आदि एकादशांगी प्रमुख अंगों में इसके अध्ययन, विषय आदि का उल्लेख एवं परिचय उपलब्ध नहीं होता ।
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ग्राचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों की शैली और भाषा में द्विरूपता देखकर कतिपय विद्वानों ने अपना यह अभिमत व्यक्त किया है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध से पश्चाद्वर्तीकाल की कृति है । वस्तुतः यह तर्क एकान्ततः सभी जगह उपयोग में नहीं लाया जा सकता क्योंकि ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जहां एक ही सूत्र में समास और व्यास दोनों ही प्रकार की वर्णनशैलियां और क्लिष्ट एवं सरल-सुगम भाषाशैलियां अपनाई गई हैं । ज्ञाताधर्मकथाङ्ग के प्रथम १६ अध्ययनों की वर्णनशैली और इनके पीछे के अध्ययनों की वर्णनशैली में इस प्रकार का अन्तर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है । ज्ञाताधर्मकथांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रत्येक अध्ययन में विषयवस्तु का विस्तारपूर्वक वर्णन है जबकि दूसरे श्रुतस्कन्ध में प्रतिसंक्षेपतः धर्मकथाओं का उल्लेख है । केवल इस आधार पर ज्ञाताधर्मकथांग के दोनों श्रुतस्कन्धों के भिन्नकर्तृ के होने की कल्पना नहीं की जा सकती । इसी तरह आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में पांच प्रकार के आचार का दार्शनिक एवं तात्विक दृष्टि से प्रतिपादन किया गया है । दार्शनिक एवं तात्विक विवेचन प्रायः सूत्र शैली में ही पाये जाते हैं । सागर को गागर में समा देने की क्षमता सूत्रशैली में ही है । आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में सूत्रशैली को अपनाया गया है अतः वहां भाषा, भाव और शैली में गाम्भीर्य एवं गूढ़ार्थताजन्य क्लिष्टता का आजाना अनिवार्य ही था । द्वितीय श्रुतस्कन्ध में यह सब कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता । इसका कारण यह है कि इसमें साध्वाचार के लिये आवश्यक छोटी से छोटो और बड़ी से बड़ी सभी बातों का साधक को समीचीनतया ज्ञान कराने के लिए सरल भाषा में उचित विस्तार के साथ समझाया गया है । आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में दार्शनिक एवं तात्विक विषय का प्रतिपादन किया गया है अतः उसमें सूत्रशैली अपनाई गई है और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में साधु के प्राचार के प्रत्येक पहलू को व्याख्यात्मक ढंग से समझाना आवश्यक था इसलिये यहां सरल और सुगम व्यास शैली को अपनाया गया है । वस्तुतः सूत्रात्मक समास शैली के माध्यम से साध्वाचार की सब बातें साधारण साधक को सरलता के साथ हृदयंगम नहीं कराई जा सकतीं ।
दोनों श्रुतस्कन्धों में दृष्टिगत होने वाली दो शैलियों का यही कारण है । वस्तुतः ये दोनों श्रुतस्कन्ध श्रार्य सुधर्मा की ही कृति हैं ।
निष्कर्ष
उपरिचचित सभी तथ्यों के समीचीनतया पर्यालोचन से जो निष्कर्ष निकलता है वह इस प्रकार है :
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