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आचारांग ] केवलिकाल : आर्य सुधर्मा
१०३ प्राचारांग का परिशिष्ट मात्र मानने विषयक और निशीथ को आचारांग की चूलिका मानने विषयक विवादों की जननी हो ।
६. आचारांग की चूलिका के सम्बन्ध में उपरोक्त उल्लेखों के अतिरिक्त और किसी भी प्रकार का उल्लेख आगमों में दृष्टिगोचर नहीं होता।
७. आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पंच चूलात्मक होने अथवा प्राचारांग से भिन्न प्राचाराग्र, चूलिकास्वरूप, अथवा परिशिष्टमात्र होने का आगम में कहीं कोई उल्लेख नहीं है।
८. मूल आगम में कहीं एक भी ऐसा उल्लेख उपलब्ध नहीं होता जिससे यह प्रकट होता हो कि आचारांग के केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध की पदसंख्या १८००० है।
8. समवाय संख्या २५ में निशीथ विषयक संदिग्ध पाठ और समवाय संख्या ५७ में "पायारचूलावज्जारणं" इस पद द्वारा आचारांग के २५ अध्ययनों में से १ अध्ययन को प्राचारचूला मान कर उसे अध्ययनों की गणना में न रखने विषयक पाठ संभवतः चूलिका के स्वरूप के प्रस्तुतीकरण (Interpretation) में किसी प्रकार की भ्रान्ति के प्रतिफल हों।
१०. द्वादशांगी के रचनाकाल में प्राचारांग के जो २५ अध्ययन थे उनमें से महापरिज्ञा सातवां अध्ययन विलुप्त हो चुका है और शेष २४ अध्ययन आज भी आचारांग में विद्यमान हैं।
११. आचारांग के प्रथम श्रतस्कन्ध को ही गणधरकृत मानते हए नियुक्तिकार ने आचारांग के द्वितीय श्रतस्कन्ध को जो स्थविरकृत और आचारांग से भिन्न पंचचूलात्मक प्राचारान सिद्ध करने की मान्यता प्रकट की है वह मूल प्रागम की भावना से विपरीत और आगमिक आधारविहीन होने के कारण काल्पनिक अमान्य मान्यताओं की कोटि में परिगणित की जा सकती है।
१२. आगम में जिन-जिन स्थलों पर दो श्रुतस्कन्धों, २५ अध्ययनों, ८५ उद्देशनकालों, ८५ समुद्देशनकालों और १८ हजार पदों से युक्त स्वरूप वाले प्राचारांग को उद्दिष्ट कर के कोई भी बात कही गई है, केवल उन्हीं स्थलों पर "पायारस्स भगवायो", "से कि पायारे" और "पायारे" इन पदों का प्रयोग किया गया है। और जहां केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध को लक्ष्य कर कोई बात कही गई है वहां इन पदों में से किसी भी पद का प्रयोग न किया जाकर "नवण्हं बंभचेरःणं" अर्थात् "नवब्रह्मचर्याध्ययनों का" - इस पद का प्रयोग किया गया है। .
उपरोक्त प्रमाणों से यह भलीभांति सिद्ध हो जाता है कि जिस प्रकार सम्पूर्ण द्वादशांगी अर्थतः तीर्थंकरप्रणीत और शब्दतः गणधरों द्वारा ग्रथित है ' (क) नंदी एवं समवायांग के द्वादशांगी परिचय प्रकरण । .
(ख) समवायांग, सम० १८, २५ और ८५ २ नवण्हं बंभचेराणं एकावन्न उद्देसणकाला पण्णत्ता। [समवायांग, सम० ५१]
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