________________
प्राचारांग] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा
१०६ क्योंकि बारहवां अङ्ग 'दृष्टिवाद' है न कि पूर्व । वस्तुतः पूर्व तो दृष्टिवाद के पांच विभागों में से एक विभाग है।' सबसे पहले पूर्वो की रचना गणधरों ने कर ली-पर बारहवें अङ्ग दृष्टिवाद के शेष बहुत बड़े भाग का तो ग्रथन आचारांगादि के क्रम से बारहवें स्थान पर ही हा। इस प्रकार का तो एक भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता जिसमें बताया गया हो कि बारहवें अङ्ग दृष्टिवाद का गणधरों द्वारा सबसे पहले ग्रथन किया गया। ऐसी स्थिति में आगम के उल्लेख के अनुसार यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि रचना एवं स्थापना दोनों ही दृष्टियों से द्वादशांगी के क्रम में प्राचारांग का प्रथम स्थान है।
आचारांग को द्वादशांगी में सर्वप्रथम स्थान दिया गया है, वस्तुतः वह सब दृष्टियों से विचार करने पर पूर्णतः संगत प्रतीत होता है। प्राचार को नियुक्तिकार द्वारा अङ्गों का सार माना गया है । क्योंकि अक्षय अव्याबाध शिवसुख की प्राप्ति का मूलाधार प्राचार है । उस आचार अर्थात् साध्वाचार का आचारांग में सांगोपांग समीचीनरूपेरण निरूपण होने के कारण इसे द्वादशांगी में प्रथम स्थान दिया गया है। आचारांग सूत्र के विशिष्ट ज्ञाता मुनि को ही उपाध्याय और प्राचार्य पद के योग्य माना जाय, इस प्रकार के अनेक उल्लेख आगम साहित्य में उपलब्ध होते हैं। आचारांग का सर्वप्रथम अध्ययन करना साधु-साध्वियों के लिए अनिवार्य रखने के साथ-साथ इस प्रकार का भी विधान किया गया था कि यदि कोई, साधु अथवा साध्वी, आचारांग का सम्यकरूपेण अध्ययन करने से पूर्व ही अन्य आगमों का अध्ययन-अनुशीलन करता है तो वह लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का अधिकारी बन जाता है । 3 इतना ही नहीं प्राचारांग का अध्ययन एवं ज्ञान प्राप्त नहीं करने वाले साधु को किसी भी प्रकार का पद नहीं दिया जाता था। प्राचारांग के अध्ययन के पश्चात् ही प्रत्येक साधु धर्मानुयोगऔर द्रव्यानुयोग पढ़ने का अधिकारी समझा जाता था। नवदीक्षित मूनि की उपस्थापना भी आचारांग के "शस्त्र-परिज्ञा” अध्ययन द्वारा की जाती थी। वह पिण्डकल्पी (भिक्षा लाने योग्य) भी प्राचारांग का अध्ययन करने के पश्चात् माना जाता था। इन तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि द्वादशांगी में प्राचारांग का कितना महत्वपूर्ण स्थान माना जाता रहा है ।
वर्तमान में प्राचारांग के स्थान पर दशवैकालिक सूत्र का अध्ययन, अागमों के अध्ययनक्रम में सर्वप्रथम प्रचलित होने के कारण अाचारांग की सबसे पहले वाचना की अनिवार्यता नहीं रही है।
आचारांग के परिशीलन एवं निदिध्यासन के पश्चात् बिना किसी प्रकार के पूर्वाग्रह से प्रभावित हुए निष्पक्षतापूर्वक विचार करने पर अन्तर्मन यही साक्षी देता ' परिकर्म-मूत्र-पूर्वानुयोग-पूर्वगत-चूलिकाः पंच ।
स्युष्टिवादभेदाः, पूर्वाणि चतुर्दशापि पूर्वगते ।। १६०।। [भिधानचिन्तामणि २ अंगाणं कि सारो ? प्रायारो,.....
[प्राचारोग नियुक्ति 3 निशीथ सूत्र, १६ - २० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org