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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पाचारांग प्रत्येक अंग के श्रुतस्कन्धों, अध्ययनों, उद्देशकों, पदों एवं अक्षरों तक की संख्या बताई गई है और प्रथम चार पूर्वो की चूलिकाओं तथा उनकी संख्या का उल्लेख किया गया है वहां प्राचारांग की चूलिका के सम्बन्ध में किसी प्रकार का उल्लेख महोना इस बात का स्वतःसिद्ध प्रमाण है कि वस्तुतः प्राचारांग की एक भी चूलिका नहीं थी। द्वादशांगी के इस परिचय से यह प्रमाणित होता है कि दृष्टिवाद के उपरोक्त चार पूर्वो को छोड़ कर अन्य किसी भी अंग की एक भी चूलिका नहीं थी। चूलिकामों की वस्तुतः एकादशांगी के लिये आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि दृष्टिवाद में एकादशांगी के प्रत्येक अंग से सम्बन्धित, उनमें उक्त, अनुक्त एवं संक्षेपतः उक्त सभी विषयों का बड़े विस्तार के साथ प्रतिपादन किया गया था।' तदनुसार जहां प्राचारांग में प्राचार-धर्म (साध्वाचार) के विधिमार्ग का प्रतिपादन किया गया है वहां नवम पूर्व की तृतीय वस्तु के प्राचार नामक बीसवें प्राभूत में साध्वाचार के अपवादों और उनकी शुद्धि हेतु सम्पूर्ण विधि-विधानों का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया था।
चतुर्दश पूर्व जब तक विच्छिन्न नहीं हुए तब तक उपरोक्त वीसवां प्राभूत प्राचारांग का अभिन्न अंग नहीं होते हुए भी आचारसुमेरु के शिखर (चूला) के रूप में प्राचारांग का सहायक अथवा पूरक माना जाता रहा। कालान्तर में कालदोषजन्य बुद्धिमान्ध के कारण पूर्वज्ञान क्षीण होने लगा और पूर्वधर प्राचार्यों ने शानबल से यह देखा कि सन्निकट काल में ही पूर्वो का ज्ञान विच्छिन्न होने वाला है तो विशाख नाम के प्राचार्य ने प्रत्याख्यान-पूर्व की तृतीय वस्तु के प्राचार नामक बीसवें प्राभृत से सारभूत अंशों को उद्धत कर 'प्राचार प्रकल्प' अर्थात् निशीथ का निष्पादन किया और उसे छेदसूत्र के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया। पूर्वज्ञान ' पाटलीपुत्र में हुई प्रथम मंगवाचना के समय एकादशांगी के पाठों को व्यवस्थित करने के पश्चात् जब वहां उपस्थित स्थविरों को यह विदित हा कि 'दृष्टिवाद' उनमें से किसी श्रमण के स्मृतिपटल पर अंकित नहीं है तो उन्होंने खिन्न हो जो शोकोद्गार प्रकट किये उन्हें "तित्थोगालिय पइन्ना" में निम्नलिखित रूप से प्रकट किया गया है :
ते विति सव्वसारस्स दिठिवायस्स नत्थि पडिसारो।
कह पुन्वगएण बिणा, पवयणासारं घरेहामो । अर्थात् जब उन्हें विदित हुआ कि परम सारभूत दृष्टिवाद उनमें से किसी की स्मृति में नहीं रहा है तो उन्होंने खिन्न हो परस्पर एक दूसरे से पूछा - "अरे ! अब हम लोग पूर्वज्ञान के बिना प्रवचन के सार को किस प्रकार धारण करेंगे ?" इस गाथा से प्रकट होता है कि दृष्टिवाद में प्रत्येक अंगशास्त्र के सम्बन्ध में परमोपयोगी तथ्यों का प्रतिपादन किया गया था।
-सम्पादक २ दंसरण चरित्तजुत्तो, गुत्तो गुत्तीसु (परि) संझणहिए ।
नामेगा विसाहगगी, महत्तरो गारगमंजुसी ।। तस्स लिहियं निस्साहिं धम्मधुराधरणे पवर पुज्जस्स ।
[हस्तलिखित निशीथ की कुछ प्रतियों की प्रशस्ति]
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