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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अधीनस्थ मन्य माचार्य ? होता है कि प्राचार्य वसु की तरह अन्य भी जो पूर्वधारी एवं विशिष्ट योग्यता वाले मुनि थे उनके प्राधीन साधु-समुदाय की व्यवस्था का कार्य रखा गया हो।
निरयावलिका सूत्र में लिखा है कि आर्य सुधर्मा ५०० साधुओं के परिवार से राजगृह नगर में पधारे।' संभव है उन ५०० साधुओं के अतिरिक्त प्रवशिष्ट जो साधु आर्य सुधर्मा के शासन में थे उन सब को विभिन्न संघाटकों में बांट दिया गया हो और उनकी व्यवस्था सुयोग्य संघाटकपतियों के प्राधीन रखी गई हो। वे संघाटकपति प्राचार्य, उपाध्याय अथवा स्थविर प्रादि किसी पद के अधिकारी. हो सकते हैं। प्राचार्य वसु और आर्य सुधर्मा के ५०० साधुओं के परिवार से विहार को दृष्टिगत रखते हुए यह निश्चय करना अनुचित नहीं होगा कि स्वयं प्रभू महावीर की विद्यमानता में और उनके पश्चात् भी गणघरों के अतिरिक्त प्राचार्य, स्थविर प्रादि पदों पर सुयोग्य साधुओं को नियुक्त करने की व्यवस्था थी।
____ प्रार्य सुधर्मा भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर संघनायक
जैसा कि इस ग्रन्थमाला के प्रथम भाग में बताया जा चुका है, ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व अर्थात् विक्रम संवत् से ४७० वर्ष और शक संवत् से ६०५ वर्ष पूर्व, वर्षाकाल के चौथे मास एवं सातवें पक्ष में कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि में भगवान् महावीर का निर्वाण हुअा। भगवान् के निर्वाण के पश्चात् उसी रात्रि को इन्द्रभूति गौतम ने केवलज्ञान की उपलब्धि की।
दूसरे ही दिन कार्तिक शुक्ला १ के दिन आर्य सुधर्मा को भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर के रूप में धर्मसंघ का अधिनायक-प्राचार्य नियुक्त किया गया। वर्तमान, अनन्त-अनागत. और विगतकाल की सभी बातों को प्रत्यक्ष जाननेदेखने वाले सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थकर भगवान ने अपने निर्वाण से लगभग ३० वर्ष पूर्व तीर्थस्थापना के दिन ही प्रार्य सुधर्मा को दीर्घायु एवं योग्य जान कर गरण की अनुज्ञा दे रखी थी ; इस बात से चतुर्विध तीर्थ भलीभांति परिचित था। इसके साथ ही साथः चतुर्विध तीर्थ को यह भी विदित था कि श्रमण, भगवान महावीर की विद्यमानता में अग्निभूति प्रादि जिन ६ केवलज्ञानी गरगधरों ने निर्वाण प्राप्त किया, उन्होंने अपने-अपने निर्वाण से एक मास पूर्व ही प्रार्य सुधर्मा को गणनायक एवं दीर्घायुष्मान् जान कर अपने-अपने गण सम्हला दिये थे।
इन दो सर्वविदित तथ्यों के अतिरिक्त भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् भगवान् के पट्टधर बनने के सभी दृष्टियों से योग्यतम अधिकारी भगवान् के ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम को कुछ ही याम पश्चात उसी रात्रि में केवलज्ञान की उपलब्धि हो चुकी थी, अतः वे भगवान् के उत्तराधिकारी नहीं बन सकते थे। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवनो महावीरस्स अन्तेवासी मज्जसुहम्मे नाम प्रणगारे जाइसंपन्ने जहा केसी जाव पंचहिं अरणगारसएहिं सद्धि संपरिबुडे पुष्वाणुपुग्विं चरमाणे.... जेणेव रायगिहे नयरे जाव प्रहापरिरूवं उग्गहं मोगिव्हित्ता संजमेणं जाव विहरह।
[निरयावलियामो, प्र.१]
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