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पाचारांग]
केवलिकाल : आर्य सुधर्मा चौथी "विमुक्ति" नामक चूलिका में वीतराग स्वरूप का उपमानों के साथ वर्णन किया गया है। इस चूलिका में केवल ११ गाथाएं हैं।
इस प्रकार प्राचारांग सूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों के कुल मिला कर २५ अध्ययन और ८५ उद्देशक होते हैं पर प्रथम श्रुतस्कन्ध के महापरिज्ञा नामक सातवें अध्ययन के लुप्त हो जाने के कारण वर्तमान में सम्पूर्ण प्राचारांग के दो श्रुतस्कन्ध, २४ अध्ययन और ७८ उद्देशक ही उपलब्ध हैं।
गोम्मटसार, धवला, जयधवला, अंगपण्णत्ति, राजवार्तिक आदि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में प्राचारांग के विषयों का परिचय कराते हुए बताया गया है कि प्राचारांग में मन, वचन, काय, भिक्षा, ईर्या, उत्सर्ग, शयनासन एवं विनय इन पाठ प्रकार की शुद्धियों का विधान है। समीचीनतया विचार किया जाय तो यह कथन प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध पर पूरी तरह घटित होता है। वस्तुत प्राचारांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध में प्राचार पर विशेष बल दिया जा कर उसके प्रत्येक पहलू पर पूर्णरूपेण प्रकाश डाला गया है। उदाहरणस्वरूप "पिण्डषणा" नामक अध्ययन में श्रमणों को निर्देश दिया गया है कि उनका माहार किस प्रकार का होना चाहिये, उन्हें किस प्रकार, किस समय और किस स्थान पर आहार लेना एवं उसका उपयोग करना चाहिये। शयषणा नामक प्रध्ययन में विस्तार के साथ पूर्ण स्पष्ट रूप से साधु को निर्देश दिये गये हैं कि उसे किस-किस प्रकार के निर्दोष स्थान में ठहरना चाहिये और किस-किस प्रकार के स्थान से सदा बचते रहना चाहिये । इन सब निर्देशों के साथ ही साथ गमनागमन की दूरियों के सम्बन्ध में, भाषा, पात्र, वस्त्र, अवग्रह एवं स्थान का परिसीमन, खड़े रहने के स्थान, मलोत्सर्गस्थान, शब्द के प्रति विरति, रूप के प्रति अनासक्ति, साधुओं की अहर्निश क्रियाएं, महावीर-चरित्र और पंच महाव्रतों की भावनामों का द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सम्यगरूपेण प्रतिपादन किया गया है।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकार कौन यह पहले सप्रमारण बताया जा चुका है कि सम्पूर्ण द्वादशांगी अर्थतः भगवान् महावीर की और शब्दतः गणधरों की कृति है । इसके साथ ही साथ समवायांग' पौर नन्दिसूत्र में जो पाचारांग का परिचय दिया गया है उसमें समान रूप से दोनों श्रु तस्कन्धों, अध्ययनों, उद्देशनकालों, समुद्दे शनकालों और पदसंख्या को प्राचारांग का अभिन्न स्वरूप मानते हुए स्पष्टरूपेण कहा गया है- "प्राचारांग अंग की अपेक्षा से प्रथम अंग है, इसमें दो श्रुतस्कन्ध, २५ अध्ययन, ८५ उद्देशनकाल और १८००० पद हैं।" यदि आचारांग सूत्र का द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रर्थतः भगवान महावीर द्वारा कथित और शब्दतः गणधरों द्वारा प्रथित नहीं होता तो इसे प्रागमों के मूल पाठ में इस प्रकार आचारांग का अभिन्न अंग कदापि स्वीकार 'समवायांग (राय धनपतिसिंह द्वारा प्रकाशित), पत्र १६६ (१) २ नम्बी सूत्र (पू. पासीलालजी म.) पृ० ५४८
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